थोड़ी दुनिया मेरी भी

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि समाज हमारे लिए दायरे किस हद तक बना सकता है. वो क्या सीमा है जहाँ हम समाज को ये हक से कह संकें कि इसके आगे आप को नहीं दखल देना चाहिए. और हर बार मैं यही समझ पाया कि या तो समाज को दखल देने का हक है या फिर नहीं ही है; ऐसी कोई हद नहीं हों सकती जो समाज और एक व्यक्ति की सीमाएं तय कर संकें. इसी असमंजस में एक नज़्म लिख रहा हूँ. सुनिए..

वहां भी तुम्हारी सुनकर,
कोई रोया फूट-फूट कर.
यहाँ भी कोई लड़कर,
टूटा आखिर जूझ-जूझ कर.

तमाशा ताकें आँखें मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

तेरी हर एक बात सुनी,
पर ये मेरी दहलीज़ है,
झूठे अंधे कानून सुने,
जज़्बात भी सभी नाचीज़ हैं.

चीत्कारों के बीच में है एक चीख मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

ज़ख़्मी जानवर के लिए भी
उनको तड़पते देखा मैंने.
इंसान के लिए नफरत से,
बस इतना ही सीखा मैंने.

यहाँ दफ़न लाशों में एक लाश है मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

बहुत रूठकर भी मैं यही कह पाया,
बुस्दिली में है एक आवाज़ मेरी भी.
तू जीता, मैं लांग न पाया,
इस दायरे में है फिर भी, एक दुनिया मेरी भी.

आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

' अतुल '

शायर पर मुकद्दमा

गुस्ताख ये ज़िन्दगी है,
कि हर बच्चा मुकद्दमे की तारीख लेके पैदा होता है.
ज़माने की बंदगी है,
कि अदालत की छाँव में यहाँ कोई गुनाहगार पैदा होता है.


बोलते है सबूत और किताबें कानून की,
इंसान यहाँ खामोश हों जाते हैं.
मिटटी की आँखों में यहाँ,
आंसूं सभी एहसान फरामोश हों जाते हैं.


चेहरे पर हँसी होती है,
अन्दर दिल में तूफ़ान होता है.
उसूलों पर इलज़ाम की जंजीरें होती हैं,
हर मुसाफिर यहाँ परेशान होता है.


शक है किसी के ईमान पर,
इल्जामों पर उसके मशाल है.
अँधेरे में जुबां पर सच है,
पर सच की हकीकत पर सवाल है.


कुछ सज़ा देंगे और कुछ  
मेरे दामन पर दाग यूँ देंगे.
कि मेरी मय्यत में आकार  भी,
मेरी मौत का सबूत पूंछेंगे.


मुसाफिर कई होंगे जो अँधेरे से हारकर,
दिलों की शम्मा बुझायेंगे.
ज़मानत की कीमत है इतनी,
कि जान देकर भी चूका न पायेंगे.


पर ये मुसाफिर कोई और होगा,
मिटकर भी ईमान से बढ़कर उसका निशाना क्या होगा.
आये गए दीवाने कई पर,
बिना जले कोई दीवाना परवाना क्या होगा.
परवाने से बढ़कर कोई यहाँ दीवाना क्या होगा.




नए साल की बहुत सारी शुभकामनाएं.


' अतुल '

ग़ज़ल : बहाना

सूफी संगीत में ग़ज़लों में खुदा को महबूब बताया जाता है. और मुहब्बत को इबादत. शायद इसी लिए सूफी सुन कर ऐसा एहसास होता है कि खुदा के करीब ही अपनी रूह जा पहुंची हों. आगे जो लिख रहा हूँ उसके ज़रिये मैं खुदा को बस एक बहाना समझकर एक चाहनेवाले की इबादत का नमूना पेश कर रहा हूँ. खुदाई तो बस मुहब्बत का बहाना है. गौर फरमाइयेगा ..... 

सांस चलती है सीने में, तेरी इनायत है,
खुदा की मर्ज़ी तो बस एक बहाना है.

हों रहीं थी मुकम्मल जबसे दुआएं मेरी,
मैं ये समझा था तुझे अब तो आना है.
लड़ रहा था मैं खुदा से तेरे लिए,
मेरी खुदगर्जी तो बस एक बहाना है.

मेरे खंडहरों में तेरी ग़ज़ल गूंजी है,
ये गीत वही अपना बड़ा पुराना है.
रोज़ रोता हूँ तेरी जुदाई में मैं,
नग्मे गाना तो बस एक बहाना है.

किसी ने कहा है ये पागल कोई,
कोई ये न समझा कि दीवाना है.
मैं आशिक ही होने को आया यहाँ,
ये नाम होना तो बस एक बहाना है.    

तुझे पहचान कर मेरी पहचान को,
खो दिया मैंने, अब क्या गंवाना है.
तेरा नाम ही लेके जिंदा हूँ मैं,
न याद आना तो बस एक बहाना है.

तेरे दीदार से ही रगों में मेरी,
जान दौड़ी, गवाह ये ज़माना है,
तेरा दामन छोड़ते ही मर गया मैं,
सांस लेना तो बस एक बहाना है.

बहुत शुक्रिया.
' अतुल '

मेरे मरने की खबर

आज तो जिन्देगी भी मुझपर बेतहाशा तरस खाई है,
दीदार दीजिये अब तो, मेरे मरने की खबर आई है.

आज से पहले ग़लतफ़हमियों में जी रहे थे हम भी,
आज ही तो कुछ बारीकियां हमको  नज़र आई हैं.

छोटी सी दुनिया है यहाँ दरिया भी दरिया से मिलते हैं,
मिलने की उम्मीद में ही, आज चांदनी उतर आई है.

थोड़ी सी दुनिया मेरी भी थी इस दुनिया के बीच में,
मेरी कश्ती के साथ ही कोई और भी लहर आई है.

शुक्रिया
 ' अतुल '

ग़ज़ल : बात पुरानी हों गयी

जो पूंछते हैं आज वो तो बात पुरानी हों गयी.

एक बूँद को प्यासे सहरा में भी कोई खिलता है,
वो बूँद का प्यासा था, वो बूँद दीवानी हों गयी.

हमसे ही लड़ते थे सब, हम खुद ही से लड़ पड़े,
सबके आशियाने सजे, मेरी दुनिया वीरानी हों गयी.

उम्मीद ही एक थी जो तुमने छोड़ी थी मेरे लिए,
उसका लुटना भी अजी, एक और कहानी हों गयी.

जिस पर हम गिरे थे वो ठोकर भी उन्ही की थी,
जिनके थे मरहम, ज़ख्म भी उनकी निशानी हों गयी.

हर फूल के खिलने की एक उम्र अलग ही होती है,
वही बर्बाद था बचपन, वही बर्बाद जवानी हों गयी.

शुक्रिया

' अतुल '

ग़ज़ल

तोड़ कर बंदिशें ज़माने की हम तो जीते हैं,
यहाँ सब गैर हैं, गैरों से शिकायत नहीं करते.

हम हैं मेह्फूस इन्ही जंजीरों में वो कहेंगे,
अजी भेडिये कभी भेड़ों की हिफाज़त नहीं करते.

उनकी हमदर्दी मेरी मुहब्बत को रियायत थी,
जल्लाद हैं वो, आशिकों से रियायत नहीं करते.

उनके बहाने फ़र्ज़, मुकद्दर और खुदा की मर्ज़ी हैं,
सुना मैंने कि परवाने खुदा की इबादत नहीं करते.

ज़माने के सामने मेरी इज्ज़त भी छोटी पड़ी,
नाज़ुक है दिल ये, इसके साथ शरारत नहीं करते.

शुक्रिया
' अतुल '

ग़ज़ल : गम-ए-दिल

गम-ए-दिल को गले लगाते हैं बिना सोचे समझे ही,
रोज़ मरने का इस से बढ़कर कोई ज़रिया नहीं होता.

हर मुअक्किल है परेशान मेरी हर सोच से क्यूँ,
सच को देखने का ऐसा कोई नज़रिया नहीं होता.

दिल ये भर आता है तो कभी अकेले में रो लेते हैं,
दिल बह जाए कितना भी, दिल दरिया नहीं होता.

ये वो शम्मा है जिसमे सभी कुछ जल जाता है,
लाख जले अंगारा अँधेरे में वो दिया नहीं होता.

आपके कीमती वक़्त के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, अपनी राय ज़रूर दीजिये.
एक बार फिर शुक्रिया.

' अतुल '

नज़्म : आज मुझे जी लेने दो

मुक्तछंद लिखने का अपना ही आनंद अलग होता है. यही सच्ची रचनाएँ होती  हैं. ऐसा इस लिए कि लिखने वाला बिना बंदिशों के, बिना मात्राओं की परवाह किये, जो जी में आये, जैसा जी में आये लिख सकता है. हलाकि ऐसी रचनायें ताल पर नहीं बैठ पातीं और न ही सुरों का साथ ही दे पातीं हैं, पर हाँ इनमें एक सादगी और इमानदारी ज़रूर होती है, एक भोलापन  होता है. इनमें अलंकार  से  अधिक  महत्ता  भावनाओं की होती है. बिलकुल एक नदी की तरह जिसे बस अपने वेग की ही सुध है, अपने स्वरुप, अपने आकार की नहीं. वह बस बहती जाती है. इसी के साथ आपके लिए ऐसी ही कविता लाया हूँ.  कविता का भाव हैं जीवन में जीवन का सूनापन. जो जीवन प्रभु ने जीने के लिए दिया है हम उसमें बस खुल के जी ही नहीं पाते.


आज मुझे जी लेने दो.

भर के तोड़े थे मैंने,
कल वो वीराने बंजर.
आज चौंक के जागे हैं,
अरमान तड़प के मेरे अन्दर.

नए वक़्त की नई पीड़ा है,
घाव सभी सी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

यहाँ मोह की मधुशाला ने,
मुझे प्यासा ही छोड़ा है.
वहाँ अश्रुओं की धारा ने,
सब बंधनों को तोडा है.

जन्मा था मैं प्यासा ही,
जी भर के मुझे पी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

सब कुछ मेरा बँटा हुआ था,
मेरी चाह कोई अनजानी थी.
किस ओर चलूँ मैं कटी पतंग,
हर दिशा लगी सुहानी थी.

बहुत बँट गया खुद ही में,
अब तो पक्ष सही लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.


पढने का शुक्रिया.

'अतुल'

ग़ज़ल : कुसूर

दीवारों से मैं चीखके, आये दिन हूँ ये पूंछता,

मेरे खुदा दे बता, आखिर मेरा क्या कुसूर था.

जब मौत की तलाश थी, ज़िन्दगी का साथ था,
जब ज़िन्दगी ने मांग की, आपने दिया वास्ता.

नज्मों की तरह नाजों से हर लव्ज़ मैंने पिरोया,
याद है हर बात मुझको, याद है हर एक वाकया.

मेरी मजबूरी है ऐसी कर नहीं सकता बयान,
हँस के रोता हूँ मैं कैसे, बस खुदा ही ये जानता.

मैं आँखों में भी तेरी पुकार ले कर ही सोता,
जाने तू मिले किस सहर में, कौन सा वो रास्ता.

ऐसा नहीं के तुझसे रूठने की मैंने कोशिश न की,
हर बार खुदसे ही मैंने पाया खुद ही को खफा.

जाने किस हंसी ख्वाब में थमा तुने मेरा हाथ था,
तेरा भी खुदा होंगा कोई, है कसम तुझको न जगा. 


पढने का बहुत बहुत शुक्रिया,

'अतुल'

शायरी : एक सवाल देदो

मैं अंधेरों से लड़ता हूँ कोई मुझे मशाल देदो,
पूंछता हूँ मैं बेजुबान की तरह, एक सवाल देदो.

हकीकत गिरवी रक्खी मैंने मुहब्बत की सेज पर,
तमाशा हूँ बना मैं हर ओहदे वाले की मेज़ पर.

आवारगी और आशिकी की हद किसने पहचानी है,
कब्र से कब्र है जिस तरह, इंसानियत अनजानी है.

सहारा बनकर ज़िन्दगी देना उनकी हमदर्दी थी,
ये मानना मेरी सज़ा, न मानना मेरी खुदगर्जी थी.

मेरी हालत पे रहम हो तो होश थोडा उधार देदे,
मेरी बीमार हसरत को थोड़ी दवा इक बार देदे.

एक आंसू तो बहालूँ, मुझे अपना रुमाल देदो,
उसके बाद हर मौसम भले, मुझे बदहाल देदो.

आपकी शाबाशी के कायल हैं हम, आपसे गुजारिश है कि अपने ख्यालों से मुझे अवगत कराएँ. पढने का बहुत बहुत शुक्रिया. धन्यवाद्.

                                  'अतुल'

ग़ज़ल : चश्मदीद है आसमान

आज एक सच्ची  मुहब्बत का अफसाना बयान कर रहा हूँ . सुनिए .. लिखता हूँ,

मैं तो हूँ तेरी दुनिया, तू ही है मेरा जहाँ,
रास्ते हैं सारे गवाह, चश्मदीद है आसमान.

*                           *                               *

मैं जो पुकारूं तुझको, और बड़े हों फासले,
आँख भरके याद करना, सज उठेंगे काफिले.

इंतज़ार के दिए जब हवाओं में डगमगायेंगे,
हम आंसुओं से रात भर नैनों के दीप जलायेंगे.

रो रो थकेगा सावन, भादो होगा परेशान,
हर हाल में जारी रहेगा मुहब्बत का कारवां.

*                             *                              *

होगा एक दिन यूँ, तुम हमें भूल जाओगे,
रास्ते होंगे हज़ारों,  दूर कहीं निकल जाओगे.

तनहाइयों में तुम, अंधेरों में मचल जाओगे,
दिल कहेगा लौट जाओ, पर लौट न पाओगे.

याद करना उस पल, हम पहुँच जायेंगे वहाँ,
खून से सींचेंगे फूल, तेरे आंसू गिरेंगे जहाँ.

*                             *                               *

गर उसी राह पर कोई और दूजा मिल जाए,
हम नज़रों से हों दूर और वफ़ा हिल जाए.

लगे महफ़िल कहीं और टकराएं शीशे जाम के,
साथ न हों मेरा तो चलना किसीका हाथ थाम के.

गैरों से न दर्द लेना, भूल जाना हम मिले कहाँ,
भूल जाना सर्द मौसम और अपनी दास्तान.

*                                *                             *

हम तो चलेंगे अकेले, आँखों में ले तेरा जहाँ,
तू बेशक भुलादे, हम रखेंगे पाक मुहब्बत जवाँ.
रास्ते रहेंगे गवाह, चश्मदीद रहेगा आसमान.
चश्मदीद रहेगा ये आसमान.


पढने का तहे दिल से शुक्रिया.

ग़ज़ल : खुद के बारे में

 खुद के बारे में लिखना कभी आसान नहीं होता. पर कभी कभार लिखना ज़रूरी होता है. ये सोचने का मौका मिलता है कि हम कैसे हैं. ये विश्लेषण ज़रूरी है. कुछ अपने बारे में लिख रहा हूँ.----


अफसाना बयाँ करते हैं तो कभी रात नहीं होती,
महफ़िल में मिलते हैं सबसे पर मुलाक़ात नहीं होती.

मेरी शक्सियत है ऐसी ही बुरा न मानें, गलती होगी,
यारों से भी मेरी आज कल खुलके बात नहीं होती.

मुझे जानना है मुसीबत, नसीहत लें तो बचियेगा,
मेरी दास्तान है दिलचस्प पर जलसे में आवाज़ नहीं होती.

हम वो हैं जिसकी मौत ही बेवफा निकली हमेशा ही,
हमसे तो अब ज़िन्दगी भी कभी नाराज़ नहीं होती.

फ़िदा होना वो खूबी है जो अरसे से हमको सिखाई गई,
आदत है बुरी, पर खता करने से फितरत बाज़ नहीं होती.

'अतुल' 

ग़ज़ल : मेरे हसने पे न जाना

तकलीफ कोई न कोई, हर किसी को होती ही है. कोई झट से आंसू बहा देता है तो कोई उस लम्हे का इंतज़ार करता है जब अश्क सारे दायरे तोड़ कर नज़रों को भिगो देते हैं. कोई हस कर छिपाता है तो कोई ख़ामोशी कि जुबान से धीरे से कुछ कह देता है. कितनी अजीब बात है कि दर्द की अभिव्यक्ति कितनी भिन्न होती है.

मेरे हसने पे न जाना मैंने रोना नहीं सीखा है,
मेरी आँखें नहीं नम तो क्या, दामन मेरा भीगा है.

कहते हैं के आंसू दिल का भार कम करते हैं, पर हर दिन हर रात रो कर भी ऐसा लगता है कि दरिया भी बहा दो तो नज़रों को कम पड़ेगा. और बात तो ये भी है कि कितनी ही मर्तबा मेरे रोने पे आंसुओं ने मुझे धोखा दिया. क्या बिना आंसुओं के गम नहीं छलकता?

ये समझ नहीं आया कि आंसूं नेक हैं कि नहीं,
इन्हें देख कर ही लोगों का दिल आज पसीजा है.

सबूत ढूंढते हैं कि निगाहों में है जलन कि नहीं,
तहकिकात न करें, अश्कों का रास्ता बड़ा सीधा है.


दिल से निकलकर, आँखों से गिरती हैं जो बूँदें,
उनका होता किसी दिल पर बड़ा नतीजा है.


पर उनका क्या जो हसते होठों में छुपते हैं,
अनसुनी सिसकियों ने बस तनहाइयों में चीखा है.

सच तो हमेशा की ही तरह धुंधला है, पर हर रोने वाले की हकीकत यही होती है. मैं मानता हूँ कि तकलीफ में रो पाना कितनी खुशकिस्मतों की खूबी होती है. और कितना तकलीफ देता है गम के कडवे एहसास को बिना सिसकी भरे मुस्कुरा के दिल में समेट लेना. कितना ज़रूरी है हर चाहने वाले के लिए ये जान पाना कि दर्द जो न जुबां पर आ पता है और न ही आँखों में वो दिल में कैसा कोहराम मचाता है. ये खुद पर किया गुनाह बड़ा ही गलत है. इसका इलाज अगली ग़ज़ल में ढूढने की कोशिश करूंगा.

पढने का शुक्रिया.

आपका अतुल.

शायरी: खुदा से इंसान....

मेरी धर्म और मज़हब में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं, कारण ये कि ये हमें सोचने से रोकते हैं. धर्म न होते तो इंसान शायद जानवर ही होते पर इतने आदमखोर नहीं जितने आज हैं. इंसान को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या सही है और क्या गलत ये सब कोई पहले ही हमारे लिए तय कर गया है. ज़रा सोचिये अगर भगवान हमसे वही करवाना चाहता जो ग्रंथों में कहा गया है तो इंसान को सोचने कि शक्ति ही क्यों देता, क्यों हमें वो करने की इजाज़त देता जो "गलत" है. शायद इस लिए क्योंकि न कुछ सही है और न ही गलत, सब मान्यता ही है. इसी लिए तो कहते हैं, "पूजो तो भगवान् नहीं तो पत्थर"; अर्ज़ कर रहा हूँ गौर करें कि इंसान खुदा से हिसाब मांग रहा है ...

ऐ खुदा तेरी कायनात का मुझे तू हिसाब तो दे.
मेरी इबादत के ही दम पे तू खुदा है, जवाब तो दे.


नाराज़ है, तेरी खुदगर्जी पर सवाल किसने उठाया है,
ये गौर करना भी ज़रूरी है, किसने किसे बनाया है.

सोचने वाली बात है कि खुदा बनाकर हमने खुद को कितना कमज़ोर बनाया है. सही भी है, खुदा वोह है जिसे हर चीज़ कि ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है. "इंसान क्या कर सकता है, ये तो खुदा कि मर्ज़ी है" का मतलब है कि खुदा मेरी नाकामी का जिम्मेवार है. "ये तो खुदा कि रहमत है जो ये दिन नसीब हुआ" का मतलब है कि अपना किया धरा किसी और के नाम कर दिया जा रहा है. ये सब इंसान को कितना कमज़ोर बना देता है. इंसान अपनी हार से डरता है और अपनी जीत से भी डरता है.

तेरी मौजूदगी पर शक करना सबको नागवार है,
क्या हक़ है होने का, तुझे न माननेवाले भी हज़ार हैं.

खुदा अगर है तो बड़ा ही कमज़ोर है, एक शायर की रचना ने उसे इतना छोटा बना दिया. वो भगवान् इतना कमज़ोर है कि खुद की कीर्ति की रक्षा करने में असमर्थ है. मेरी हिदायत है सबको कि खुदा अगर ढूंढें भी तो इंसान में ढूढें. कमज़ोर है तो क्या हुआ दिखता तो है, उसे गले तो लगा सकते हैं. उसके साथ रो और हँस तो सकते हैं. आखिर में,

तुझसे भला महबूब है, मुहब्बत में वफ़ा तो मिलती है,
एक आवाज़ के बदले उसकी सदा तो भिलती है.


हो बेवफा महबूब तो एक दिन दगा तो करता है,
वो दर्द में भी, मेरी रगों में नशा तो करता है.

पढने का बहुत शुक्रिया,
अपने विचार वर्णबद्ध ज़रूर करें. एक बार फिर से शुक्रिया.
"अतुल"

ग़ज़ल: चरागों में दखल

इस बार भी कुछ ऐसी बातें कहूँगा जो उन लोगों के लिए है जो मुहब्बत को भी ज़रुरत समझते हैं. भूख के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है और अक्सर मेहनत से भूख मिटटी भी है पर मुहब्बत के लिए जितनी मशक्कत करें ये तो बस किस्मत ही है जो सहरे-वफ़ा का दीदार कराती है. पर मुहब्बत करना और निभाना दो अलग बातें हैं. मुहब्बत का क्या है, हर गली कूचे में आशिक मिलते हैं पर फ़ना होना सिर्फ शहीद और दीवानों को आता है. जो फ़ना नहीं हो सकते उनके लिए मुहब्बत बस जरिया है. तो सुनिए, अर्ज़ करता हूँ...

क्यूँ चरागों में दखल देते हो, ये तो परवानों का पेशा है,
उम्मीद रखना जायज़ नहीं, यहाँ कल भला किसने देखा है.

जिन्हें मुहब्बत करनी नहीं आती पर मुहब्बत करने काशौक रखते हैं, उनकी मुहब्बत रिश्तों में ही पहचान पाती है. रिश्ते से ही वोह अपनी पहचान बनाते हैं. रिश्तों के दायरे के बहार उनकी मुहब्बत खोखली हो जाती है.

कल थे मुहब्बत के ज़रिये, आज रिश्तों के मोहरे हैं,
तभी तो मेरी हर मौत को सबने किया अनदेखा है. 

ऐसे रिश्ते बन कर भी क्या बनेंगे जो ज़माने के मानने के मोहताज होते हैं. आखिर में वो तमाशे बन जाते हैं. वो तमाशा जो दुनिया के तंग दिलों को बस बहलाता ही है. मुहब्बत के वहम में जल जाती हैं जिन्दगियाँ.

इंतज़ार कि आग ने हवाओं का दामन थाम लिया,
मेरे जलते घर में लोगों ने अपना अपना हाथ सेंका है.

ग़ज़ल : अश्क अगर कम पड़े तो

आज तक सिर्फ नज़्म और शायरी को ही मेरे ब्लॉग में जगह मिलती थी. अब कुछ लिखने को भी जी करता है. शायद कविता मेरी भावनाओं को कम पड़ती हैं. एक टूटे दिल की आह बड़ी मासूम और खामोश होती है. और कई बार इतनी नादाँ कि एक दर्द को भुलाने के लिए हम बड़े ज़ख्मों को गले लगा लेते हैं. इस कायनात में अगर कोई इतना कमज़ोर हो सकता है तो वो सिर्फ एक टूटा हुआ दिल है. मेरे चंद शेर उन लोगों के लिए जो टूटने के बाद हमदर्द ढूंढते हैं. नसीहत नहीं है, चेतावनी है." ये वो गलियां हैं जहाँ न टूटना तोड़ना ही होता है."


अश्क अगर कम पड़े तो ज़हर पी लेना,
न मरना ज़िन्दगी में, मौत को ही जी लेना.


वो हमदर्दी भीख है जिसमे मुहब्बत नहीं होती,
न लेना मरहम, ज़ख्म भर के सी लेना.


मेरी समझ के बहार है कि हर रिश्ता आदमी को बेतहाशा दर्द ज़रूर देता है फिर भी जिस तरह भिखारी खाने के लिए तड़पता है, ठीक उसी तरह इंसान मुहब्बत के लिए भिखारी सा बन जाता है. जिन्हें आज तक ये महसूस न हुआ उनके लिए कहता हूँ, सुनिए...


गर ज़िन्दगी ने तुझे गम कम दिए तो क्या,
शिकवा न कर, बस मुहब्बत में दो पल जी लेना.


आखरी लाइन से पहले यही कहूँगा कि मुझे आप बेशक मनहूस और पत्थर कहें पर मेरी गुजारिश हर चाहने वाले से यही है, कि "चाहत कभी इल्जाम नहीं लेती, दीवाने होते हैं अक्सर, मुहब्बत कभी नीलाम नहीं होती."


खुदा दर्द और महबूब में एक नज़र करे कभी,
तो शौक से और याद से दर्द ही लेना.


पढने के लिए शुक्रिया.

ग़ज़ल


जो जीने की हिम्मत तोड़ दे, वो सपना नहीं होता,
चाँद से वफ़ा करो कितनी भी, वो अपना नहीं होता.


हम अपनों से भी गैरों की तरह आँखें चुराते हैं,
दो पल के लिए भी हमसे  बस इतना नहीं होता.


वो कभी मेरी हँसी की वजह थे ये यकीन नहीं उनको,
मेरा उन्हें देखकर आज कल कभी हसना नहीं होता.


मैं तोड़ भी दूं ज़माने की बंदिशें तो क्या होगा भला,
उनका ज़माने से मेरे लिए कभी लड़ना नहीं होता.


वो मुझे तसव्वुर का वहम तो बताते हैं शौक से,
क्या बात है, मेरी चीख पर भी उनका उठना नहीं होता.


मेरे होश को फरियाद वो करते हैं आये दिन जाने क्यूँ,
क्या करें के इश्क के तीर से सबका बचना नहीं होता.


- अतुल

वन्दे मातरम

वन्दे  मातरम  बोलना मुझे आज से पहले बहुत गर्व और मातृभक्ति कि भावना से ओत-प्रोत कर देता था. आज मुझे अगाध दुःख और लज्जा की अनुभूति देता है. क्यों? क्योंकि मैं एक कवि हूँ, क्योंकि मैं एक शायर हूँ, क्योंकि मैं एक सिपाही हूँ, क्योंकि मैं हिन्दुस्तानी हूँ और इसके साथ ही मैं हिन्दू भी हूँ.

मेरा ये लेख खासकर मुस्लिम भाइयों के लिए है. मैं एक सिपाही हूँ और शहीद होना मुझे जान से भी प्यारा है. पर मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे कई मुस्लिम दोस्त भी हैं जो इसी जज्बे को महसूस करते हैं. मुझे उर्दू बहुत मीठी लगती है, हिंदी और बंगाली से भी ज्यादा. मैं इतिहास में बहुत पढाई कर चूका हूँ और इसी लिए जब कल से अखबारों में शब्दों की हलचल से वाकिफ हुआ तो लगा कि अगर खामोश रहा तो रूह मेरी मुझे नागवार होगी. तो सुनिए. 

एक कवि और शायर कि हैसियत से मैं ये मानता हूँ कि वन्दे मातरम और सारे जहाँ से अच्छा , ये दोनों ही हमारे राष्ट्रगान जन गन मन से बेहतर हैं (साहित्यिक सन्दर्भ में). इतिहास कि जानकारी मुझे ये भी याद दिलाती है कि हालाकि ये दोनों में से कोई भी एक राष्ट्रगन हो सकता था पर धार्मिक पक्षपात के आरोप के डर से दोनों को ही सहमती न देना सियासी मजबूरी साबित हुई.

एक सिपाही होने कि हैसियत से मैं ये कह सकता हूँ कि, मैं और मेरे कई मुस्लिम दोस्त वन्दे मातरम बड़ी ही ख़ुशी के साथ गाते हैं. हम साथ साथ मंदिर जाते हैं और साथ ही साथ मस्जिद में सजदा भी करते हैं. न वो मन्दिर में हाथ जोड़कर कोई कम मुस्लमान ही हुए और न ही मैं सजदा करके एक गलत सनातनी(हिन्दू)  ही. हाँ पर ऐसा करके हम ये समझ गए कि देश के लिए जो हमारा जज्बा था न ही वो वन्दे मातरम के गायन का मोहताज था और न ही उससे अलग. हमने बस बिना कोशिश किये ये सीखा कि हम एक दुसरे को समझकर ही देश कि रक्षा कर सकते हैं.

मुझे ये कहना भी गर्व देता है कि मैंने न केवल गीता, देवी भागवत, रामायण और महाभारत पढ़े हैं बल्कि कुरान और बाइबल भी उसी चाव और दिलचस्पी से पढ़े हैं. शायद इसी लिए मैं लिखने का अभिकारी हूँ और आप पढने के. क्योंकि वन्दे मातरम् एक गीत है इसके कई भाव निकाले जाते हैं. कविता पानी कि तरह होती है जिस प्याले में डालो ढल जाती है. न ही ये देवी मां का भजन है और न ही कोई वेदोक्त हिन्दू पद. अगर ये कुछ है तो वो है मां कि महिमा का गान. वो मां जो हमें पैदा करती है, हमें पहचान देती है, हमें पालती है और मज़बूत बनाती है. मां कि पूजा कौन धर्म गलत कहता है. पर ये मां वो मां है जो निस्स्वार्थ भावना से बस देती है, ये मातृभूमि है, इसे मदर लैंड भी कहते हैं. कविता में मां को देश से रूपक के द्वारा जोड़ा है. 

ये सब तो ठीक है, आपको हक़ है कि आप अपनी राय रखें पर क्या किसी भी धार्मिक संस्था या सियासी मोर्चे को ये हक़ है कि वो ये तय करे कि इस कविता का क्या मतलब निकाला जाय? एक इंसान होने की हैसियत से ये अधिकार तो खुद खुदा भी आपसे नहीं छीनता, तो ये कौन है जो हमारी सोच की उड़ान रोकना चाहता है. सच तो ये है कि छोटे दिमाग वाले लोग कम जानकार लोगों के दिलों पे राज करते हैं. एक मुसलमान तो अपने ए आर रहमान साहब जो वन्दे मातरम् गाते हैं, और पूरे जोर से. मेरी नज़र में उनसे अच्छा मुसलमान, इंसान और हिन्दुस्तानी कोई और नहीं. और बड़ा सच तो ये भी है कि हमारे झंडे में केसरिया रंग भी है, पर वो तो सनातन धर्म में धर्म का रंग है, उसके बीच में धर्म का ही अशोक चक्र भी है. फिर तो झंडे को सलामी देना भी काफिरों का काम होगा. और इन धार्मिक संस्थाओं का क्या है? ये तो कह देंगे देशभक्त के लिए झंडे को  सलामी देना कोई ज़रूरी नहीं. और सच है कि ये सब तो बहाने ही हैं. पर कुछ तो वजह रही होगी कि अशफाकुल्ला खान और मौलाना आजाद ने इसी गीत के ज़रिये जन्नत हासिल की. या शायद वो सच्चे अर्थों में मुस्लमान न थे.

';अतुल'

*

ग़ज़ल : महबूब से बातें




ग़ज़ल : महबूब से बातें

दो इरादों को शिकस्त इस तरह,
के लोग कहें मिज़ाज़ फीका है.

हम भुलादें वोह गुस्ताखी कैसे,
वो हुनर हमने तुम्ही से सीखा है.

वोह तुम्हे अव्वल कहें अक्सर,
तो कहो बस गम ही तो जीता है.

हो परेशां कि होगा जीना मुश्किल,
भला जीने को कौन जीता है.

मेरी बातें चुभें तो मुआफ करना,
मेरा सलीका ही बड़ा तीखा है.

ज़रा सी मशक्कत तकलीफ हो तो,
छुपने का, बंद आँखें सही तरीका है.                           

                                                                       -- 'अतुल'
*

ग़ज़ल


ग़ज़ल

ये काश की ही मुहब्बत सही , ख़ुशी है कि गम भी तेरे ही हैं
हमें हमीं से चुराते हो पर हमें, क्यों हो गम हम भी तेरे ही हैं.

तेरे साथ रहते हुए हमें ये, अफ़सोस होने लगा जी बहुत,
ज़िन्दगी कि घनी काली रात में, ये चंद दिन के सवेरे ही हैं.

हमें भूलने के शौक भी वो, हमारी याद के ही बहाने बने,
भूलों कि यादें, सपनो से बातें, ये सारे तमाशे मेरे ही हैं.

मेरी आस्तीन में थी मुहब्बत, हमनें भी आखिर सीख ली,
तेरी मुझसे ये नफरत, मेरी इबादत, उसी साँप के सपेरे ही हैं,

मुहब्बत नहीं असरदार ज़हर, खुदकुशी का और जरिया ढूंढो,
कभी से मुझे मौत कि भीड़ में, ज़िन्दगी के इरादे घेरे ही हैं.

                                                      -- ' अतुल '
*

ग़ज़ल

*
ग़ज़ल 

समा रंगीन रहे कब तक, हमीं बेजार हो गए,
करने चले थे हम वफ़ा, बेवफा हर बार हो गए.

उम्मींदों से पला और अश्कों से सींचा था,
पक्की फसल थी और बारिश के आसार हो गए.

इस दुनिया में खुदाई मुहब्बत ही से शुरू होती है,
मैंने सर झुका दिया और तुम परवरदिगार हो गए.

कोई ऐसा न था जिसे हम कभी दुआएं देते,
किसी एक को दुआ जो दी वही बीमार हो गए.

उनहोंने ही दिए थे हमको ख्वाब नजरानों में,
मेरी आँखों में सपनों के टुकड़े हज़ार हो गए.

मुहब्बत की वोह जंजीरें शीशे की होती हैं,
कोई ये नहीं मानता हम गिरफ्तार हो गए.

मेरे कई चेहरे हैं, आप किस एक से खफा हैं,
बेबस हैं हम मानिए सभी हमसे गद्दार हो गए.

अपने कारवां को मोड़ने में देर करदी आपने,
हम कभी के किसी काफिले में सवार हो गए.

-- 'अतुल'             पिछली रचना पढें 




ग़ज़ल: रोकना ज़रूर


रोकना ज़रूर 

मेरे जाने से पहले टोकना ज़रूर,
मैं रुकूंगा नहीं पर रोकना ज़रूर.

अपनी हमदर्दी से एहसान कर देना,
शर्मिंदगी से झुकी इक नज़र देना.
मेरे गम से अपने आंसू पोछना ज़रूर,
आंसू रुकेंगे नहीं पर रोकना ज़रूर.

कहीं आपको भी मुहब्बत तो नहीं,
इस घडी को रोकने की चाहत तो नहीं.
ये है वहम तो इसे तोड़ना ज़रूर,
वक़्त रुकता नहीं पर रोकना ज़रूर.

मेरी ग़ज़लों का रुख आप नहीं समझे,
मौके भी आपके पास नहीं कम थे.
कुछ लिखने की कोशिश में गोचना ज़रूर,
कलम रुकेगी नहीं पर रोकना ज़रूर.

-- ' अतुल '                                   पिछली रचना पढें 

*

ग़ज़ल


ग़ज़ल

मेरी हर सदा के बदले एक आवाज़ तो दे,
पास है तो अपने होने का एहसास तो दे.

मजबूर हूँ के मैं छू नहीं सकता तुझको,
गम न कर मेरी साँसों को अपनी साना तो दे.

तेरी मौजूदगी मेरी तन्हाई को डराती है,
आने से पहले मेरी देहलीज़ पर खाँस तो दे.

हर ग़ज़ल है अधूरी, इस बात से वाकिफ हूँ,
सुर बैठेंगे लव्जों पर तू ज़रा साज़ तो दे.

हम भी फ़िदा होने की काबीलियत रखते हैं,
तू हमें अपनों में ओहदा कोई ख़ास तो दे.


*

ग़ज़ल: एक वाकया

ग़ज़ल: एक वाकया

किताब के बहाने तुमने मुझे याद करो जब बुलाया था,
उसमे एक फूल बड़े नाजों से तुमने पन्नों में दबाया था.

वो फूल आज अरसे से अपने वजूद से बेतहाशा लड़ता होगा,
वही फूल जिसे सौ बार गिरने पर तुमने सौ बार उठाया था.

वो किताब ज़िन्दगी है या वो पन्ने यादें ये तुम जानो,
मुझे बस पता है वो फूल मेरी लाश पर तुमने गिराया था.

खो दिया उसे या दिल के किसी कोने में छिपा रखा है,
ये कफ़न वही टुकडा है जिसे उस रात हमने नीचे बिछया था.

मुझे सौ बार दफन होना हो मंज़ूर अगर तुम मिटटी भरते,
 कुछ खोने के डर से तुमने खो सब दिया जो कभी पाया था.

ये नज़रें चुराकर कहाँ जाते हो, ये आंसू किससे छिपाते हो,
इन्ही के सामने मैंने कई मर्तबा आँखों से पानी बहाया था.

जलाते को शम्मा, जलते को परवाना तो कभी से सब कहते हैं,
कौन कहेगा अकेली कब्र उसकी है जिसने हर लम्हा तेरे साथ बिताया था. 

-- ' अतुल '


ग़ज़ल - तलाश




ग़ज़ल - तलाश
 
हम सर झुकाते फिरे मजारों पे,
मुहब्बत देती थी दस्तक मेरी दीवारों पे.

उस कश्ती को लहरें ले गईं साथ में,
जिसकी राह तकते थे हम किनारों पे.

लूट कर हैं ले गयी जवानी पतझड़ की,
ये इल्जाम है आज इन बहारों पे.

वो यार कल के अब याद नहीं करते,
चलो छोडो यारों की बात यारों पे.

जो महफिल में इशारे किया करते थे,
वो नाचने लगे हैं मेरे इशारों पे.

हम सजाते थे ज़मीं पर आशियाँ किसीका,
कोई सजा रहा है मेरा घर सितारों पे.

-'अतुल'



ग़ज़ल - प्यार के लिए


प्यार के लिए

मौत आती है इकरार के लिए.
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

अब इशारे भी ज़िन्दगी के लिए हैं कम,
खामोशी ने तेरी तोडा हरदम.
कह उठते हैं वो इनकार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

हम पहचान में अजनबी लगते हैं,
तेरे अपने सभी ये कहते हैं.
सफाई देते हैं रिश्तेदार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

हर पल सोचते हैं हो दीदार का,
उनके दर्द-ए-इज़हार का.
हर घडी ठहरती है इन्तेज़ार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

सांस रुकने को ज़ख्म कितने काफी हैं,
कौन जाने कितने अभी बाकी हैं.
घाव खुलते हैं हर बौछार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

वो दर्द, थी ज़िन्दगी जिसमे,
वो सितम, थी हर ख़ुशी जिसमे.
मरते हैं मुझे वो हर बार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

-'अतुल'


ग़ज़ल

*

जो अरमान बूढे पैदा होते हैं, जवान नहीं होते,
आजकल मेरे रोने पर पड़ोसी मेरे हैरान नहीं होते।

तार्जुब होता है की अंधेरे ने हमें मारा है डराकर,
यहाँ तो अंधे भी दिए जलाते हैं परेशान नहीं होते।

छटपटाते बदन के सीने में कोई खंजर देदे,
नेक लोग यहाँ , एक से तमाम नहीं होते।

कब्रिस्तान में मुझसे कई बस यूँ ही लेते हुए थे,
लाशों पे उनके मौत के कोई निशान नहीं होते।

ज़िन्दगी की गुलामी एक अरसे से है की मैंने, फिर क्यूँ,
मेरे सपने मेरी हकीकत के गुलाम नहीं होते।

ये कोई ज़िन्दगी नहीं न मौत का ही ज़िक्र है,
ये तो मुहब्बत है, इसके सिलसिले कभी आसान नहीं होते।
- ' अतुल '




ग़ज़ल


ग़ज़ल 

मेरे चाहनेवाले महबूब मेरे कई इल्जाम लगते होंगे,
मेरी आँखों की नमी से वो मेरे अश्क चुराते होंगे.

बेकरारी के ये सबक सीख के भी बाज़ नहीं आते,
सूखी बस्ती है अरमानों की, वो दिलों में आग लगाते होंगे.

मेरी बेवफाई को कभी इतना, न समझा न तराशा गया,
वो अपने जिस्म पर मेरे दिए ज़ख्म यूँ सजाते होंगे.

मेरे जीते मेरी ज़िन्दगी के लिए लड़ते थे इस तरह,
मेरे मरने पे मेरी मौत का फरमान सुनते होंगे.

कफ़न तैयार होगा पर कब्र में सांस मेरी बाकी होगी,
वो रो रो कर मेरी साँसों की आवाजों को दबाते होंगे.
                                                                  -- ' अतुल '

ग़ज़ल : बाजारों की हलचल


 बाजारों की हलचल 

ये बाजारों की हलचल है.

यहाँ पुराने हाथों से नए हुस्न की नुमाइश होती है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई जिस्म नया बिकता होगा.

यहाँ सदियों के सूखे में गम ही बारिश बन कर गिरता है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई बंजर ईमान ही सिंकता होगा.

यहाँ  पुराने करतब कब से नए खिलाडी दिखाते हैं,
ये  बाजारों की हलचल है, कोई पर्दा फिर से खिचता होगा.

यहाँ वो जंगल के जानवर आदमखोर तो खुल्ले घूमा करते है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई इंसान पिंजडे में दिखता होगा.

यहाँ खनक और चमक पैगम्बर  बोलने का हक रखते है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई सिक्का पुराना घिसता होगा.

अरे! तुम क्या समझे, ये बाजारों की हलचल है.

                                                            - ' अतुल '
*

 

नज़्म - एक सवाल

एक सवाल और उनके मुट्ठीभर जवाब

इस शहर के शोर में, ज़िन्दगी के हर मोड़ में,
भूल से या शायद याद से भूल जाते हैं,
एक सवाल और उनके मुट्ठीभर जवाब.

किसी खुदगर्जी से या किसी गर्म सियासत से,
पूंछते किसी ठंडी अंगीठी या सुलगती बगावत से,
एक सवाल और उनके मुट्ठीभर जवाब.

हिंदुस्तान-पाकिस्तान और सरहद की जंग में,
महल आलीशान में या गलियाँ गन्दी तंग में,
एक सवाल और उनके मुट्ठीभर जवाब.

जानते हैं एहसास से पर खोजते हैं किताब में,
गज़लकार के मुशायरे में, छलकी शराब में,
एक सवाल और उनके मुट्ठीभर जवाब.

एक सवाल - मैं कौन हूँ?
और इसके मुट्ठीभर गलत जवाब.
- ' अतुल '
*

ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुमने ये क्या कह दिया

मेरी ज़िन्दगी अभी थी बाकी और कुछ एहसास अनछुए से थे,
आह भी नहीं निकली बदन से तुमने धीरे से ये वार कैसा कर दिया.

सो गया था नींद गहरी बड़े अरसे से ये आँखें मेरी जागी ही थीं
अरे! प्यार की आड़ में किस ज़ख्म पर तुमने हाथ अपना रख दिया.

और धीरे से रोने को न कहना ये बड़ी ही ज्यादती हो जायेगी,
मैं हूँ अकेला, गूंजता हूँ, तू कौन है जो मेरे रोने से डर के चल दिया.

इतनी क़यामत है ज़िन्दगी की किसी का डर नहीं बाकी मुझमे,
मैं कच्चे खाक का बुत था, तुने प्यार से ख़ाक मुझको कर दिया.

ऐसी भी बेशर्मी के न कायल बनो, अजी खुदा सभी को देखता है,
खूब खेला मेरे आंसुओं से और जाने से पहले रुमाल पीछे रख दिया.
-- ' अतुल '



ग़ज़ल


क्यों

इस शहर में डूबते जज्बात पूंछते हैं,
हर आदमी यहाँ इंसान क्यों नहीं होता.

मेरे पूछने से पहले ही ये दास्तान सुनाई गई,
इस मुलाकात का कोई अंजाम क्यों नहीं होता.

इतनी दौलत है यहाँ मंदिर मस्जिद में ,
फिर यहाँ नेकी करना आसान क्यों नहीं होता.

हवा वही है, मौसम वही है सदियों से यहाँ,
फिर सुकून से यहाँ कोई काम क्यों नहीं होता.

नेकी फौलाद का ईमान चाहती है, इसलाम नहीं,
अजी, हर बशर यहाँ मुसलमान क्यों नहीं होता.

-- ' अतुल '
*


ग़ज़ल : इंसानों की भीड़ में


इंसानों की भीड़ में

इंसानों की भीड़ में मुझे न कहीं इंसान दिखे.

मुझे मंदिर दिखे, मस्जिद दिखे, हिन्दू दिखे, मुसलमान दिखे,
पर मस्जिद में अल्लाह न दिखे, मंदिर में न भगवान दिखे.

बिकते हुए सपने दिखे, बिकते हुए अरमान दिखे,
दुनिया के इस बाज़ार में लेकिन, फौलाद के न इमान दिखे.

टी वी दिखी, विडियो गेम्स दिखे, फिल्में दिखीं, शाहरुख़ खान दिखे,
चार साल के बच्चे भी अब मुझे न मासूम दिखे, न नादान दिखे.

परमाणु दिखे, नागासाकी दिखे, इराक और अफगानिस्तान दिखे,
मुझे सपने में दुनिया के नक्शे पर, न पाकिस्तान दिखे, न हिंदुस्तान दिखे.

--' अतुल '

*





ग़ज़ल


ग़ज़ल

हर किसी से यहाँ धोखा ही मैंने खाया है,
कौन अपना है और कौन यहाँ पराया है.

ले चुके है साँसे अपने हिस्से की लगता है,
अब तो हर सांस का लगता नुझे किराया है.

मेरे आंसू यहाँ किसीको नहीं भिगो सकते,
बस महफिल में एक मुद्दा नया उठाया है.

कुछ पहले इसी भीड़ ने पैगम्बर मुझे कहा था,
कुछ पहले ही इन्होंने शैतान मुझे बताया है.

तेरे आगे सब झुकाते हैं मैं भी झुका देता हूँ,
पर सजदे में नहीं मैंने तो बेबसी में सर झुकाया है.

--- ' अतुल '

*

चार कोस , पानी की खातिर


सावन ने अपनी कृपा से कृतार्थ कर दिया है. पानी की सुन्दर बुँदे जहाँ पृथ्वी को तृप्त करती प्रतीत होती हैं, वहीँ मेरे मन में अनायास ही एक सवाल उठा देती हैं. भारत में कुल चार सौ गाँव में पीने का पानी सुलभ नहीं है. और हजारों की संख्या में औरतें (ध्यान दें केवल औरतें ) मीलों चल कर पानी भर भर के लाती हैं. और हममे से कई लोग पानी की कीमत की खिल्ली प्रतिदिन अपने घरों में, अपनी सोसाइटी में उड़ते हैं. कैसी विडम्बना है. यदि आप पानी की कीमत पहचानते हैं तो ज़रा इस कविता को पढें. एक गृहणी अपने छोटे बच्चे को घर छोड़कर पानी के लिए मीलों चलकर, झुलसते हुए जाती है. यदि आपको न्यायाभाव प्रतीत हो तो पानी बचाएं. save water, save life. अफ्रीका में प्रतिदिन दो सौ लोग प्यास से मरते हैं! सोचिये!

चार कोस , पानी की खातिर

मुन्ने को रोता छोड़ आई,
चार कोस पानी की खातिर.

झुलस गई थी धरा भी तपकर,
सिंक चुके थे नंगे पाओं.
प्यास सताती प्यास के लिए,
पर लांग गई कितने ही गाँव.

फिर भी न लडखडाई,
चार कोस पानी की खातिर.

फिर जब लम्बी कतार देखी तो ,
हुआ व्याकुल तन मन प्यासा.
आज नीर की दो बूंद हो संभव,
धुंधली सी लगती आसा.

फिर भी डटकर कतार लगाई,
चार कोस पानी की खातिर.

अब मुर्झा गई तेरी काया,
मन में मुन्ने की पीडा सताती थी,
अब उतरा तो पानी कंठों से उसके,
पर अपनी सुविधा से भी लाज उसे आ जाती थी.

पर क्या करती; प्यास बुझाई
चार कोस पानी की खातिर.

--- ' अतुल '

*

मैं सो जाऊँ तो


मैं सो जाऊँ तो

जो मैं सो जाऊं तो, कोई आहट हा होने देना,
थकी ज़िन्दगी की थकान है, ज़रा देर और सोने देना.

जो सुनना वीरानों में किसी मायूस की रुदाली,
मेरी तन्हाई न बांटना, बस यूँ ही अकेले रोने देना.

न खोजना मुझे किसी दिन, किसी निशानी के बहाने,
मेरी तस्वीर को मेज़ पर ही किसी किताब में खोने देना.

उठने देना उन उँगलियों को जो मेरी ओर उठेंगी,
दामन पर मेरे दाग पुराने हैं, वक़्त को वक़्त से धोने देना.

--- ' अतुल '

*

ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुमसे जुदा मेरी ज़िन्दगी का ये रास्ता है.

दिल न जाने मुहब्बत क्या चीज़ होती है,
बस इतना ही जाने की दिल तुम्हें चाहता है.

कौन है वो जिससे हर सांस पाक होती है,
कौन है वो जिसे हर दुआ में दिल मांगता है.

क्यों है दिल को गम तुमसे दूरी का ये सोचता हूँ,
पलकों में ही रहते हो ये बात नहीं जानता है.

ये हिचकी मुझे सताती है क्यों कबसे बेवजह,
ये तेरी ही याद का है असर दिल खूब पहचानता है.
-- ' अतुल '

*

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