ग़ज़ल : गम-ए-दिल

गम-ए-दिल को गले लगाते हैं बिना सोचे समझे ही,
रोज़ मरने का इस से बढ़कर कोई ज़रिया नहीं होता.

हर मुअक्किल है परेशान मेरी हर सोच से क्यूँ,
सच को देखने का ऐसा कोई नज़रिया नहीं होता.

दिल ये भर आता है तो कभी अकेले में रो लेते हैं,
दिल बह जाए कितना भी, दिल दरिया नहीं होता.

ये वो शम्मा है जिसमे सभी कुछ जल जाता है,
लाख जले अंगारा अँधेरे में वो दिया नहीं होता.

आपके कीमती वक़्त के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, अपनी राय ज़रूर दीजिये.
एक बार फिर शुक्रिया.

' अतुल '
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