मेरी धर्म और मज़हब में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं, कारण ये कि ये हमें सोचने से रोकते हैं. धर्म न होते तो इंसान शायद जानवर ही होते पर इतने आदमखोर नहीं जितने आज हैं. इंसान को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या सही है और क्या गलत ये सब कोई पहले ही हमारे लिए तय कर गया है. ज़रा सोचिये अगर भगवान हमसे वही करवाना चाहता जो ग्रंथों में कहा गया है तो इंसान को सोचने कि शक्ति ही क्यों देता, क्यों हमें वो करने की इजाज़त देता जो "गलत" है. शायद इस लिए क्योंकि न कुछ सही है और न ही गलत, सब मान्यता ही है. इसी लिए तो कहते हैं, "पूजो तो भगवान् नहीं तो पत्थर"; अर्ज़ कर रहा हूँ गौर करें कि इंसान खुदा से हिसाब मांग रहा है ...
ऐ खुदा तेरी कायनात का मुझे तू हिसाब तो दे.
मेरी इबादत के ही दम पे तू खुदा है, जवाब तो दे.
नाराज़ है, तेरी खुदगर्जी पर सवाल किसने उठाया है,
ये गौर करना भी ज़रूरी है, किसने किसे बनाया है.
सोचने वाली बात है कि खुदा बनाकर हमने खुद को कितना कमज़ोर बनाया है. सही भी है, खुदा वोह है जिसे हर चीज़ कि ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है. "इंसान क्या कर सकता है, ये तो खुदा कि मर्ज़ी है" का मतलब है कि खुदा मेरी नाकामी का जिम्मेवार है. "ये तो खुदा कि रहमत है जो ये दिन नसीब हुआ" का मतलब है कि अपना किया धरा किसी और के नाम कर दिया जा रहा है. ये सब इंसान को कितना कमज़ोर बना देता है. इंसान अपनी हार से डरता है और अपनी जीत से भी डरता है.
तेरी मौजूदगी पर शक करना सबको नागवार है,
क्या हक़ है होने का, तुझे न माननेवाले भी हज़ार हैं.
खुदा अगर है तो बड़ा ही कमज़ोर है, एक शायर की रचना ने उसे इतना छोटा बना दिया. वो भगवान् इतना कमज़ोर है कि खुद की कीर्ति की रक्षा करने में असमर्थ है. मेरी हिदायत है सबको कि खुदा अगर ढूंढें भी तो इंसान में ढूढें. कमज़ोर है तो क्या हुआ दिखता तो है, उसे गले तो लगा सकते हैं. उसके साथ रो और हँस तो सकते हैं. आखिर में,
तुझसे भला महबूब है, मुहब्बत में वफ़ा तो मिलती है,
एक आवाज़ के बदले उसकी सदा तो भिलती है.
हो बेवफा महबूब तो एक दिन दगा तो करता है,
वो दर्द में भी, मेरी रगों में नशा तो करता है.
पढने का बहुत शुक्रिया,
अपने विचार वर्णबद्ध ज़रूर करें. एक बार फिर से शुक्रिया.
ऐ खुदा तेरी कायनात का मुझे तू हिसाब तो दे.
मेरी इबादत के ही दम पे तू खुदा है, जवाब तो दे.
नाराज़ है, तेरी खुदगर्जी पर सवाल किसने उठाया है,
ये गौर करना भी ज़रूरी है, किसने किसे बनाया है.
सोचने वाली बात है कि खुदा बनाकर हमने खुद को कितना कमज़ोर बनाया है. सही भी है, खुदा वोह है जिसे हर चीज़ कि ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है. "इंसान क्या कर सकता है, ये तो खुदा कि मर्ज़ी है" का मतलब है कि खुदा मेरी नाकामी का जिम्मेवार है. "ये तो खुदा कि रहमत है जो ये दिन नसीब हुआ" का मतलब है कि अपना किया धरा किसी और के नाम कर दिया जा रहा है. ये सब इंसान को कितना कमज़ोर बना देता है. इंसान अपनी हार से डरता है और अपनी जीत से भी डरता है.
तेरी मौजूदगी पर शक करना सबको नागवार है,
क्या हक़ है होने का, तुझे न माननेवाले भी हज़ार हैं.
खुदा अगर है तो बड़ा ही कमज़ोर है, एक शायर की रचना ने उसे इतना छोटा बना दिया. वो भगवान् इतना कमज़ोर है कि खुद की कीर्ति की रक्षा करने में असमर्थ है. मेरी हिदायत है सबको कि खुदा अगर ढूंढें भी तो इंसान में ढूढें. कमज़ोर है तो क्या हुआ दिखता तो है, उसे गले तो लगा सकते हैं. उसके साथ रो और हँस तो सकते हैं. आखिर में,
तुझसे भला महबूब है, मुहब्बत में वफ़ा तो मिलती है,
एक आवाज़ के बदले उसकी सदा तो भिलती है.
हो बेवफा महबूब तो एक दिन दगा तो करता है,
वो दर्द में भी, मेरी रगों में नशा तो करता है.
पढने का बहुत शुक्रिया,
अपने विचार वर्णबद्ध ज़रूर करें. एक बार फिर से शुक्रिया.
"अतुल"
kafi alag hai aapki shayari
bahut khoob..
khuda ki kudrat ne hi tumko bhi banaya hai,
bandon ko apne bagaawat karna bhi sikhaya hai.
sundar
bade naraz lagte hain bhagwan se. pichhli rachnaon ki hi tarah alag.
bahut vishisht
aage aur achha likhen
shirshendu, mujhe pata nahin tha tu itna achha likhta hai, tera membership widget nhin hai. how to join, subscribe.
kuchh positive likha kar. aur kitni der online hai?
thats why god is god, because he even loves us when we hate him. no man can stand that u see.