ग़ज़ल : इस शहर का दस्तूर

इस शहर का तो लगता यही दस्तूर है,
यहाँ मुहब्बत को इबादत नहीं कहते.

परछाई बनकर देखो कि जीना क्या है,
मेरे होने को यहाँ हकीकत नहीं कहते.

यहाँ ज़माने से लड़ना बगावत है,
मुहब्बत में मिटने को शहादत नहीं कहते.

महबूब यहाँ बिछने को कालीन होते हैं,
खूब है यहाँ महबूब को हसरत नहीं कहते.

किसी की चोट पर जान निकलती है,
इस मर्ज़ को यहाँ मुहब्बत नहीं कहते.

मेरे सीने के घाव उनके तोहफे ही हैं,
उनके किसी वार को हम नफरत नहीं कहते.

- "अतुल"

ग़ज़ल

अभी इतनी सी तो उम्मीद है कि,
कम से कम तेरे गुलशन तो आबाद हैं.

थोडा सा सावन कितना बरसता,
पर आँखें अभी भी बरसने को आज़ाद हैं.

मेरे घर और उनके घर का नाता है कुछ,
दुनिया तो दोनों तरफ ही बर्बाद है.
थोड़ी सी हलचल थी मेरे घर में,
थोडा उनके भी घर में फसाद है.

ठोकर ज़मीन पर खाते रहे,
अपनी हालत तो हमेशा से ही ख़राब है.
पहले हाथों में गुलाब था,
आज कल हाथों में शराब है.

मेरी हर बात बोरियत होती है,
अच्छा है कि उनकी अलग हर बात है.
मेरी आँखों में जो अश्क कमजोरी कहलाए,
वोह उनकी आँखों में जज़्बात है.


शुक्रिया

'अतुल'

कोई आने को है

दस्तक है, कोई आने को है.

वो शहर यहाँ उजड़ा था कभी,
वहीं कोई बस्ती बसाने को है.

मैं ही था राह में ताकता ही रहा,
राह वहीँ से  मुड जाने को है.

तोड़ हर कसम, आज उनके पास,
कोई वायदा निभाने को है.

हद से जियादा मांग लिया आपने,
मेरा सब्र शायद टूट जाने को है.

' अतुल '

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