शायरी: खुदा से इंसान....

मेरी धर्म और मज़हब में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं, कारण ये कि ये हमें सोचने से रोकते हैं. धर्म न होते तो इंसान शायद जानवर ही होते पर इतने आदमखोर नहीं जितने आज हैं. इंसान को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या सही है और क्या गलत ये सब कोई पहले ही हमारे लिए तय कर गया है. ज़रा सोचिये अगर भगवान हमसे वही करवाना चाहता जो ग्रंथों में कहा गया है तो इंसान को सोचने कि शक्ति ही क्यों देता, क्यों हमें वो करने की इजाज़त देता जो "गलत" है. शायद इस लिए क्योंकि न कुछ सही है और न ही गलत, सब मान्यता ही है. इसी लिए तो कहते हैं, "पूजो तो भगवान् नहीं तो पत्थर"; अर्ज़ कर रहा हूँ गौर करें कि इंसान खुदा से हिसाब मांग रहा है ...

ऐ खुदा तेरी कायनात का मुझे तू हिसाब तो दे.
मेरी इबादत के ही दम पे तू खुदा है, जवाब तो दे.


नाराज़ है, तेरी खुदगर्जी पर सवाल किसने उठाया है,
ये गौर करना भी ज़रूरी है, किसने किसे बनाया है.

सोचने वाली बात है कि खुदा बनाकर हमने खुद को कितना कमज़ोर बनाया है. सही भी है, खुदा वोह है जिसे हर चीज़ कि ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है. "इंसान क्या कर सकता है, ये तो खुदा कि मर्ज़ी है" का मतलब है कि खुदा मेरी नाकामी का जिम्मेवार है. "ये तो खुदा कि रहमत है जो ये दिन नसीब हुआ" का मतलब है कि अपना किया धरा किसी और के नाम कर दिया जा रहा है. ये सब इंसान को कितना कमज़ोर बना देता है. इंसान अपनी हार से डरता है और अपनी जीत से भी डरता है.

तेरी मौजूदगी पर शक करना सबको नागवार है,
क्या हक़ है होने का, तुझे न माननेवाले भी हज़ार हैं.

खुदा अगर है तो बड़ा ही कमज़ोर है, एक शायर की रचना ने उसे इतना छोटा बना दिया. वो भगवान् इतना कमज़ोर है कि खुद की कीर्ति की रक्षा करने में असमर्थ है. मेरी हिदायत है सबको कि खुदा अगर ढूंढें भी तो इंसान में ढूढें. कमज़ोर है तो क्या हुआ दिखता तो है, उसे गले तो लगा सकते हैं. उसके साथ रो और हँस तो सकते हैं. आखिर में,

तुझसे भला महबूब है, मुहब्बत में वफ़ा तो मिलती है,
एक आवाज़ के बदले उसकी सदा तो भिलती है.


हो बेवफा महबूब तो एक दिन दगा तो करता है,
वो दर्द में भी, मेरी रगों में नशा तो करता है.

पढने का बहुत शुक्रिया,
अपने विचार वर्णबद्ध ज़रूर करें. एक बार फिर से शुक्रिया.
"अतुल"

ग़ज़ल: चरागों में दखल

इस बार भी कुछ ऐसी बातें कहूँगा जो उन लोगों के लिए है जो मुहब्बत को भी ज़रुरत समझते हैं. भूख के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है और अक्सर मेहनत से भूख मिटटी भी है पर मुहब्बत के लिए जितनी मशक्कत करें ये तो बस किस्मत ही है जो सहरे-वफ़ा का दीदार कराती है. पर मुहब्बत करना और निभाना दो अलग बातें हैं. मुहब्बत का क्या है, हर गली कूचे में आशिक मिलते हैं पर फ़ना होना सिर्फ शहीद और दीवानों को आता है. जो फ़ना नहीं हो सकते उनके लिए मुहब्बत बस जरिया है. तो सुनिए, अर्ज़ करता हूँ...

क्यूँ चरागों में दखल देते हो, ये तो परवानों का पेशा है,
उम्मीद रखना जायज़ नहीं, यहाँ कल भला किसने देखा है.

जिन्हें मुहब्बत करनी नहीं आती पर मुहब्बत करने काशौक रखते हैं, उनकी मुहब्बत रिश्तों में ही पहचान पाती है. रिश्ते से ही वोह अपनी पहचान बनाते हैं. रिश्तों के दायरे के बहार उनकी मुहब्बत खोखली हो जाती है.

कल थे मुहब्बत के ज़रिये, आज रिश्तों के मोहरे हैं,
तभी तो मेरी हर मौत को सबने किया अनदेखा है. 

ऐसे रिश्ते बन कर भी क्या बनेंगे जो ज़माने के मानने के मोहताज होते हैं. आखिर में वो तमाशे बन जाते हैं. वो तमाशा जो दुनिया के तंग दिलों को बस बहलाता ही है. मुहब्बत के वहम में जल जाती हैं जिन्दगियाँ.

इंतज़ार कि आग ने हवाओं का दामन थाम लिया,
मेरे जलते घर में लोगों ने अपना अपना हाथ सेंका है.

ग़ज़ल : अश्क अगर कम पड़े तो

आज तक सिर्फ नज़्म और शायरी को ही मेरे ब्लॉग में जगह मिलती थी. अब कुछ लिखने को भी जी करता है. शायद कविता मेरी भावनाओं को कम पड़ती हैं. एक टूटे दिल की आह बड़ी मासूम और खामोश होती है. और कई बार इतनी नादाँ कि एक दर्द को भुलाने के लिए हम बड़े ज़ख्मों को गले लगा लेते हैं. इस कायनात में अगर कोई इतना कमज़ोर हो सकता है तो वो सिर्फ एक टूटा हुआ दिल है. मेरे चंद शेर उन लोगों के लिए जो टूटने के बाद हमदर्द ढूंढते हैं. नसीहत नहीं है, चेतावनी है." ये वो गलियां हैं जहाँ न टूटना तोड़ना ही होता है."


अश्क अगर कम पड़े तो ज़हर पी लेना,
न मरना ज़िन्दगी में, मौत को ही जी लेना.


वो हमदर्दी भीख है जिसमे मुहब्बत नहीं होती,
न लेना मरहम, ज़ख्म भर के सी लेना.


मेरी समझ के बहार है कि हर रिश्ता आदमी को बेतहाशा दर्द ज़रूर देता है फिर भी जिस तरह भिखारी खाने के लिए तड़पता है, ठीक उसी तरह इंसान मुहब्बत के लिए भिखारी सा बन जाता है. जिन्हें आज तक ये महसूस न हुआ उनके लिए कहता हूँ, सुनिए...


गर ज़िन्दगी ने तुझे गम कम दिए तो क्या,
शिकवा न कर, बस मुहब्बत में दो पल जी लेना.


आखरी लाइन से पहले यही कहूँगा कि मुझे आप बेशक मनहूस और पत्थर कहें पर मेरी गुजारिश हर चाहने वाले से यही है, कि "चाहत कभी इल्जाम नहीं लेती, दीवाने होते हैं अक्सर, मुहब्बत कभी नीलाम नहीं होती."


खुदा दर्द और महबूब में एक नज़र करे कभी,
तो शौक से और याद से दर्द ही लेना.


पढने के लिए शुक्रिया.

ग़ज़ल


जो जीने की हिम्मत तोड़ दे, वो सपना नहीं होता,
चाँद से वफ़ा करो कितनी भी, वो अपना नहीं होता.


हम अपनों से भी गैरों की तरह आँखें चुराते हैं,
दो पल के लिए भी हमसे  बस इतना नहीं होता.


वो कभी मेरी हँसी की वजह थे ये यकीन नहीं उनको,
मेरा उन्हें देखकर आज कल कभी हसना नहीं होता.


मैं तोड़ भी दूं ज़माने की बंदिशें तो क्या होगा भला,
उनका ज़माने से मेरे लिए कभी लड़ना नहीं होता.


वो मुझे तसव्वुर का वहम तो बताते हैं शौक से,
क्या बात है, मेरी चीख पर भी उनका उठना नहीं होता.


मेरे होश को फरियाद वो करते हैं आये दिन जाने क्यूँ,
क्या करें के इश्क के तीर से सबका बचना नहीं होता.


- अतुल

वन्दे मातरम

वन्दे  मातरम  बोलना मुझे आज से पहले बहुत गर्व और मातृभक्ति कि भावना से ओत-प्रोत कर देता था. आज मुझे अगाध दुःख और लज्जा की अनुभूति देता है. क्यों? क्योंकि मैं एक कवि हूँ, क्योंकि मैं एक शायर हूँ, क्योंकि मैं एक सिपाही हूँ, क्योंकि मैं हिन्दुस्तानी हूँ और इसके साथ ही मैं हिन्दू भी हूँ.

मेरा ये लेख खासकर मुस्लिम भाइयों के लिए है. मैं एक सिपाही हूँ और शहीद होना मुझे जान से भी प्यारा है. पर मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे कई मुस्लिम दोस्त भी हैं जो इसी जज्बे को महसूस करते हैं. मुझे उर्दू बहुत मीठी लगती है, हिंदी और बंगाली से भी ज्यादा. मैं इतिहास में बहुत पढाई कर चूका हूँ और इसी लिए जब कल से अखबारों में शब्दों की हलचल से वाकिफ हुआ तो लगा कि अगर खामोश रहा तो रूह मेरी मुझे नागवार होगी. तो सुनिए. 

एक कवि और शायर कि हैसियत से मैं ये मानता हूँ कि वन्दे मातरम और सारे जहाँ से अच्छा , ये दोनों ही हमारे राष्ट्रगान जन गन मन से बेहतर हैं (साहित्यिक सन्दर्भ में). इतिहास कि जानकारी मुझे ये भी याद दिलाती है कि हालाकि ये दोनों में से कोई भी एक राष्ट्रगन हो सकता था पर धार्मिक पक्षपात के आरोप के डर से दोनों को ही सहमती न देना सियासी मजबूरी साबित हुई.

एक सिपाही होने कि हैसियत से मैं ये कह सकता हूँ कि, मैं और मेरे कई मुस्लिम दोस्त वन्दे मातरम बड़ी ही ख़ुशी के साथ गाते हैं. हम साथ साथ मंदिर जाते हैं और साथ ही साथ मस्जिद में सजदा भी करते हैं. न वो मन्दिर में हाथ जोड़कर कोई कम मुस्लमान ही हुए और न ही मैं सजदा करके एक गलत सनातनी(हिन्दू)  ही. हाँ पर ऐसा करके हम ये समझ गए कि देश के लिए जो हमारा जज्बा था न ही वो वन्दे मातरम के गायन का मोहताज था और न ही उससे अलग. हमने बस बिना कोशिश किये ये सीखा कि हम एक दुसरे को समझकर ही देश कि रक्षा कर सकते हैं.

मुझे ये कहना भी गर्व देता है कि मैंने न केवल गीता, देवी भागवत, रामायण और महाभारत पढ़े हैं बल्कि कुरान और बाइबल भी उसी चाव और दिलचस्पी से पढ़े हैं. शायद इसी लिए मैं लिखने का अभिकारी हूँ और आप पढने के. क्योंकि वन्दे मातरम् एक गीत है इसके कई भाव निकाले जाते हैं. कविता पानी कि तरह होती है जिस प्याले में डालो ढल जाती है. न ही ये देवी मां का भजन है और न ही कोई वेदोक्त हिन्दू पद. अगर ये कुछ है तो वो है मां कि महिमा का गान. वो मां जो हमें पैदा करती है, हमें पहचान देती है, हमें पालती है और मज़बूत बनाती है. मां कि पूजा कौन धर्म गलत कहता है. पर ये मां वो मां है जो निस्स्वार्थ भावना से बस देती है, ये मातृभूमि है, इसे मदर लैंड भी कहते हैं. कविता में मां को देश से रूपक के द्वारा जोड़ा है. 

ये सब तो ठीक है, आपको हक़ है कि आप अपनी राय रखें पर क्या किसी भी धार्मिक संस्था या सियासी मोर्चे को ये हक़ है कि वो ये तय करे कि इस कविता का क्या मतलब निकाला जाय? एक इंसान होने की हैसियत से ये अधिकार तो खुद खुदा भी आपसे नहीं छीनता, तो ये कौन है जो हमारी सोच की उड़ान रोकना चाहता है. सच तो ये है कि छोटे दिमाग वाले लोग कम जानकार लोगों के दिलों पे राज करते हैं. एक मुसलमान तो अपने ए आर रहमान साहब जो वन्दे मातरम् गाते हैं, और पूरे जोर से. मेरी नज़र में उनसे अच्छा मुसलमान, इंसान और हिन्दुस्तानी कोई और नहीं. और बड़ा सच तो ये भी है कि हमारे झंडे में केसरिया रंग भी है, पर वो तो सनातन धर्म में धर्म का रंग है, उसके बीच में धर्म का ही अशोक चक्र भी है. फिर तो झंडे को सलामी देना भी काफिरों का काम होगा. और इन धार्मिक संस्थाओं का क्या है? ये तो कह देंगे देशभक्त के लिए झंडे को  सलामी देना कोई ज़रूरी नहीं. और सच है कि ये सब तो बहाने ही हैं. पर कुछ तो वजह रही होगी कि अशफाकुल्ला खान और मौलाना आजाद ने इसी गीत के ज़रिये जन्नत हासिल की. या शायद वो सच्चे अर्थों में मुस्लमान न थे.

';अतुल'

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