नज़्म : आज मुझे जी लेने दो

मुक्तछंद लिखने का अपना ही आनंद अलग होता है. यही सच्ची रचनाएँ होती  हैं. ऐसा इस लिए कि लिखने वाला बिना बंदिशों के, बिना मात्राओं की परवाह किये, जो जी में आये, जैसा जी में आये लिख सकता है. हलाकि ऐसी रचनायें ताल पर नहीं बैठ पातीं और न ही सुरों का साथ ही दे पातीं हैं, पर हाँ इनमें एक सादगी और इमानदारी ज़रूर होती है, एक भोलापन  होता है. इनमें अलंकार  से  अधिक  महत्ता  भावनाओं की होती है. बिलकुल एक नदी की तरह जिसे बस अपने वेग की ही सुध है, अपने स्वरुप, अपने आकार की नहीं. वह बस बहती जाती है. इसी के साथ आपके लिए ऐसी ही कविता लाया हूँ.  कविता का भाव हैं जीवन में जीवन का सूनापन. जो जीवन प्रभु ने जीने के लिए दिया है हम उसमें बस खुल के जी ही नहीं पाते.


आज मुझे जी लेने दो.

भर के तोड़े थे मैंने,
कल वो वीराने बंजर.
आज चौंक के जागे हैं,
अरमान तड़प के मेरे अन्दर.

नए वक़्त की नई पीड़ा है,
घाव सभी सी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

यहाँ मोह की मधुशाला ने,
मुझे प्यासा ही छोड़ा है.
वहाँ अश्रुओं की धारा ने,
सब बंधनों को तोडा है.

जन्मा था मैं प्यासा ही,
जी भर के मुझे पी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

सब कुछ मेरा बँटा हुआ था,
मेरी चाह कोई अनजानी थी.
किस ओर चलूँ मैं कटी पतंग,
हर दिशा लगी सुहानी थी.

बहुत बँट गया खुद ही में,
अब तो पक्ष सही लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.


पढने का शुक्रिया.

'अतुल'
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