ग़ज़ल


जो जीने की हिम्मत तोड़ दे, वो सपना नहीं होता,
चाँद से वफ़ा करो कितनी भी, वो अपना नहीं होता.


हम अपनों से भी गैरों की तरह आँखें चुराते हैं,
दो पल के लिए भी हमसे  बस इतना नहीं होता.


वो कभी मेरी हँसी की वजह थे ये यकीन नहीं उनको,
मेरा उन्हें देखकर आज कल कभी हसना नहीं होता.


मैं तोड़ भी दूं ज़माने की बंदिशें तो क्या होगा भला,
उनका ज़माने से मेरे लिए कभी लड़ना नहीं होता.


वो मुझे तसव्वुर का वहम तो बताते हैं शौक से,
क्या बात है, मेरी चीख पर भी उनका उठना नहीं होता.


मेरे होश को फरियाद वो करते हैं आये दिन जाने क्यूँ,
क्या करें के इश्क के तीर से सबका बचना नहीं होता.


- अतुल
1 Response
  1. अतुल जी, अच्छी गजल हैं, मगर दूसरे शेर के पहले मिसरे के पहले शब्द हम को हटा कर अगर वो कर देगें तो शेर और भी सुन्दर हो जाएगा


Blog Flux

Poetry blogs