ग़ज़ल : महबूब से बातें




ग़ज़ल : महबूब से बातें

दो इरादों को शिकस्त इस तरह,
के लोग कहें मिज़ाज़ फीका है.

हम भुलादें वोह गुस्ताखी कैसे,
वो हुनर हमने तुम्ही से सीखा है.

वोह तुम्हे अव्वल कहें अक्सर,
तो कहो बस गम ही तो जीता है.

हो परेशां कि होगा जीना मुश्किल,
भला जीने को कौन जीता है.

मेरी बातें चुभें तो मुआफ करना,
मेरा सलीका ही बड़ा तीखा है.

ज़रा सी मशक्कत तकलीफ हो तो,
छुपने का, बंद आँखें सही तरीका है.                           

                                                                       -- 'अतुल'
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ग़ज़ल


ग़ज़ल

ये काश की ही मुहब्बत सही , ख़ुशी है कि गम भी तेरे ही हैं
हमें हमीं से चुराते हो पर हमें, क्यों हो गम हम भी तेरे ही हैं.

तेरे साथ रहते हुए हमें ये, अफ़सोस होने लगा जी बहुत,
ज़िन्दगी कि घनी काली रात में, ये चंद दिन के सवेरे ही हैं.

हमें भूलने के शौक भी वो, हमारी याद के ही बहाने बने,
भूलों कि यादें, सपनो से बातें, ये सारे तमाशे मेरे ही हैं.

मेरी आस्तीन में थी मुहब्बत, हमनें भी आखिर सीख ली,
तेरी मुझसे ये नफरत, मेरी इबादत, उसी साँप के सपेरे ही हैं,

मुहब्बत नहीं असरदार ज़हर, खुदकुशी का और जरिया ढूंढो,
कभी से मुझे मौत कि भीड़ में, ज़िन्दगी के इरादे घेरे ही हैं.

                                                      -- ' अतुल '
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