ग़ज़ल
मेरी ज़िन्दगी अभी थी बाकी और कुछ एहसास अनछुए से थे,
आह भी नहीं निकली बदन से तुमने धीरे से ये वार कैसा कर दिया.
सो गया था नींद गहरी बड़े अरसे से ये आँखें मेरी जागी ही थीं
अरे! प्यार की आड़ में किस ज़ख्म पर तुमने हाथ अपना रख दिया.
और धीरे से रोने को न कहना ये बड़ी ही ज्यादती हो जायेगी,
मैं हूँ अकेला, गूंजता हूँ, तू कौन है जो मेरे रोने से डर के चल दिया.
इतनी क़यामत है ज़िन्दगी की किसी का डर नहीं बाकी मुझमे,
मैं कच्चे खाक का बुत था, तुने प्यार से ख़ाक मुझको कर दिया.
ऐसी भी बेशर्मी के न कायल बनो, अजी खुदा सभी को देखता है,
खूब खेला मेरे आंसुओं से और जाने से पहले रुमाल पीछे रख दिया.
-- ' अतुल '