ग़ज़ल : ज़िन्दगी आज फिर से

ज़िन्दगी आज फिर से बदलने लगी,
रात पत्तों के पीछे है ढलने लगी|

दुनिया हम से लडती थी, हम वक़्त से,
सांस अब तो फतह में सम्हलने लगी|

हम हैं शीशे क्यूँ पत्थर से टकरा गए,
पत्थर में नमी क्यूँ मचलने लगी |

कोई दर्द ले कर चले जा रहे थे,
 नई बात फिर से निकलने लगी|

बुस्दिली के थे कायल जो अब तलक,
उनमे लड़ने की चाहत उछलने लगी|

 - 'अतुल'

ग़ज़ल : देखा है

ग़ज़ल लिखते समय कभी मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि मेरी रचना कितने नियमों पर खरी उतरेगी, गर ख्याल रहा तो महज़ इसी बात का की जज़्बात बखूबी उभर आये| हमेशा यही कहूँगा कि थोडा बहुत प्रयोग हमेशा करता हूँ नई नई शिलियों के साथ| लिखने की कोशिश इस लिय्स करता हूँ क्यूंकि इन रचनाओं के माध्यम से बंधन से मुक्त हों सकूं| रदीफ़ और काफिये पर ज्यादा ध्यान न दें, वरना ग़ज़ल नाराज़ हों जाएगी.... मजाक कर रहा हूँ| पढने का शुक्रिया ......

मैंने ज़िन्दगी का हर शक्स देखा है,
आईने में मैंने हर अक्स देखा है|

सुना है इश्क की चिंगारी बुझती नहीं,
नज़रों से  शोलों को बुझते देखा है|

सपने बह गए इशारों में ही क्यूंकि,
मैंने भीगी आँखों से सपना देखा है|

मैंने देखा उन्हें कई वादे करते हुए,
मैंने उन्हें रिश्तों को तोड़ते देखा है|

लहरों से मैंने चट्टान को कटते देखा,
मैंने सैलाब सीने में छुपते देखा है|

आंसुओं के ठिकानों में उम्मीदें देखी,
आंसुओं के साथ उनको बहते देखा है|

मेरी तस्वीर आँखों में है इतनी बुरी,
ज़ख्मों पे मैंने खुदा को हसते देखा है|

राहों पे मैंने यारों को बढ़ते देखा ,
मायूसी को मेरे लिए रुकते देखा है|

सोचता था आसमां है हौसला मेरा,
मैंने तो आसमाँ को भी झुकते देखा है|

'अतुल'

मुहब्बत

मुहब्बत समझना और करना दोनों ही महज़ इत्तेफाक़न ही होता है |
पर आज ऐसा लगता है कि ज़रूर ये कुदरत का इशारा है |

तो सोचा कि बारिश क्यूँ होती है? क्या बारिश ये पूंछती है कि वोह क्यूँ बरसे? ज़मीन प्यासी है भी कि नहीं? क्या उसकी ज़रुरत है भी या नहीं? नहीं, कभी नहीं? वोह सिर्फ बरसना जानती है | कभी सावन कि मर्ज़ी से तो कभी बिना सावन के ही बेवक्त ही बरस उठती है | किसे पता बरसने में उसकी मर्ज़ी भी शामिल है या नहीं |

ये भी सोच कि लहरें सागर के कगार पर बार बार क्यूँ आती हैं? उन्हें तो फिर लौटना ही है| क्यूँ बेसब्र होके आ गिरती हैं? क्या सोचती हैं, साहिल को साथ ले जायेंगी? या ये सोचती हैं कि हों सकता है इस बार साहिल हमें लौटने न दे, आगोश में भर ले| पर इतनी मर्तबा बेबस, लाचार और हताश हों कर लौटने के बाद भी वोह बार बार उसे भिगोती हैं, उठती हैं, गिरती हैं, हर पल हर लम्हा सब जान कर भी वोह फिर लौटती हैं| हर बार भिगोने पर भी साहिल का दिल नम नहीं होता| वोह साहिल का हक है| उसे हक है कि वोह न हिले और ये लहरों का भी हक है कि वोह उसे भिगोने से न चूकें|  पर हाँ सदियों की मुहब्बत से साहिल बदलता  है| मुहब्बत कभी ज़ाया नहीं होती| उसका असर हर शय पर होता है, कभी न कभी| चट्टान टूट जाते हैं, किनारे कट जाते है और साहिल बदल जाते हैं|

मुहब्बत का सबसे बड़ा सबक तो हमने खुदा से ही सीखा|  उसने पूरी कायनात बनाई पर खुद अकेला रह गया| खुदा ने अपने लिए कुछ नहीं बनाया| इंसान को बनाया और ये हक भी दिया कि वोह उससे मुहब्बत करे या नफरत| और अगर उससे नफरत करे तो इसके बावजूद वोह सबसे उतनी ही मुहब्बत करता है| मुहब्बत के बदले में मुहब्बत न मिलना बस उसे ही गवारा हों सकता है जो मुहब्बत करना जनता हों| खुदा, तेरी मुहब्बत को सलाम|

नज़्म : सांस तुम्हारी होती है

एक लम्बे विराम के बाद मैंने कलम को तकल्लुफ दिया है | और ये मानना इमानदारी होगी कि कुछ अच्छा ज़हन में आ भी नहीं रहा था | कुछ यूं हुआ कि पुरानी बातें फिर सामने दोहराने लगीं | लगा कि मैं तो कहीं और ही चला गया था | सब कुछ वैसा ही तो है | अब आखिर अपने इतिहास से कोई कितना भाग सकता है | बस इतना सोचा ही था कि यह नज़्म ज़हन में आ गयी | जाने अनजाने में मुहब्बत किसी न किसी बहाने से जिंदा रह ही जाती है | लिखा है .......

तन्हाई में मेरी मुझसे हर बात तुम्हारी होती है,
धड़कन खामोश है सीने में पर सांस तुम्हारी होती है |

आखिर में जी कर हर शय को मिटना ही तो होता है,
नाज़ुक है, इस वीराने में भी आवाज़ तुम्हारी होती है |

ना जाने किस मोड़ पे गिर कर राह नई ढूंढी हमने,
मैं भटक गया पर यहाँ से हर राह तुम्हारी होती है |

आँखों में ख्वाब लिए चलता हूँ कब कोई आहट हों जाये,
हर दिन तो तेरा था कबसे अब हर रात तुम्हरी होती है |

थोड़ी सी नीयत बुरी भी थी पर दिल मेरा नादान था,
अजी दिल तोड़ने की अदा भी ख़ास तुम्हारी होती है |

जायज़ क्या और क्या नाजायज़, इस बात पर क्यूँ अड़ना,
इबादत मेरे करने से तबियत क्यूँ नाराज़ तुम्हारी होती है |

' अतुल '

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