ग़ज़ल: चरागों में दखल

इस बार भी कुछ ऐसी बातें कहूँगा जो उन लोगों के लिए है जो मुहब्बत को भी ज़रुरत समझते हैं. भूख के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है और अक्सर मेहनत से भूख मिटटी भी है पर मुहब्बत के लिए जितनी मशक्कत करें ये तो बस किस्मत ही है जो सहरे-वफ़ा का दीदार कराती है. पर मुहब्बत करना और निभाना दो अलग बातें हैं. मुहब्बत का क्या है, हर गली कूचे में आशिक मिलते हैं पर फ़ना होना सिर्फ शहीद और दीवानों को आता है. जो फ़ना नहीं हो सकते उनके लिए मुहब्बत बस जरिया है. तो सुनिए, अर्ज़ करता हूँ...

क्यूँ चरागों में दखल देते हो, ये तो परवानों का पेशा है,
उम्मीद रखना जायज़ नहीं, यहाँ कल भला किसने देखा है.

जिन्हें मुहब्बत करनी नहीं आती पर मुहब्बत करने काशौक रखते हैं, उनकी मुहब्बत रिश्तों में ही पहचान पाती है. रिश्ते से ही वोह अपनी पहचान बनाते हैं. रिश्तों के दायरे के बहार उनकी मुहब्बत खोखली हो जाती है.

कल थे मुहब्बत के ज़रिये, आज रिश्तों के मोहरे हैं,
तभी तो मेरी हर मौत को सबने किया अनदेखा है. 

ऐसे रिश्ते बन कर भी क्या बनेंगे जो ज़माने के मानने के मोहताज होते हैं. आखिर में वो तमाशे बन जाते हैं. वो तमाशा जो दुनिया के तंग दिलों को बस बहलाता ही है. मुहब्बत के वहम में जल जाती हैं जिन्दगियाँ.

इंतज़ार कि आग ने हवाओं का दामन थाम लिया,
मेरे जलते घर में लोगों ने अपना अपना हाथ सेंका है.
2 Responses

  1. nisha Says:

    itni buri bhi nahin duniya


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