ग़ज़ल : अश्क अगर कम पड़े तो

आज तक सिर्फ नज़्म और शायरी को ही मेरे ब्लॉग में जगह मिलती थी. अब कुछ लिखने को भी जी करता है. शायद कविता मेरी भावनाओं को कम पड़ती हैं. एक टूटे दिल की आह बड़ी मासूम और खामोश होती है. और कई बार इतनी नादाँ कि एक दर्द को भुलाने के लिए हम बड़े ज़ख्मों को गले लगा लेते हैं. इस कायनात में अगर कोई इतना कमज़ोर हो सकता है तो वो सिर्फ एक टूटा हुआ दिल है. मेरे चंद शेर उन लोगों के लिए जो टूटने के बाद हमदर्द ढूंढते हैं. नसीहत नहीं है, चेतावनी है." ये वो गलियां हैं जहाँ न टूटना तोड़ना ही होता है."


अश्क अगर कम पड़े तो ज़हर पी लेना,
न मरना ज़िन्दगी में, मौत को ही जी लेना.


वो हमदर्दी भीख है जिसमे मुहब्बत नहीं होती,
न लेना मरहम, ज़ख्म भर के सी लेना.


मेरी समझ के बहार है कि हर रिश्ता आदमी को बेतहाशा दर्द ज़रूर देता है फिर भी जिस तरह भिखारी खाने के लिए तड़पता है, ठीक उसी तरह इंसान मुहब्बत के लिए भिखारी सा बन जाता है. जिन्हें आज तक ये महसूस न हुआ उनके लिए कहता हूँ, सुनिए...


गर ज़िन्दगी ने तुझे गम कम दिए तो क्या,
शिकवा न कर, बस मुहब्बत में दो पल जी लेना.


आखरी लाइन से पहले यही कहूँगा कि मुझे आप बेशक मनहूस और पत्थर कहें पर मेरी गुजारिश हर चाहने वाले से यही है, कि "चाहत कभी इल्जाम नहीं लेती, दीवाने होते हैं अक्सर, मुहब्बत कभी नीलाम नहीं होती."


खुदा दर्द और महबूब में एक नज़र करे कभी,
तो शौक से और याद से दर्द ही लेना.


पढने के लिए शुक्रिया.
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