ग़ज़ल : मेरे हसने पे न जाना

तकलीफ कोई न कोई, हर किसी को होती ही है. कोई झट से आंसू बहा देता है तो कोई उस लम्हे का इंतज़ार करता है जब अश्क सारे दायरे तोड़ कर नज़रों को भिगो देते हैं. कोई हस कर छिपाता है तो कोई ख़ामोशी कि जुबान से धीरे से कुछ कह देता है. कितनी अजीब बात है कि दर्द की अभिव्यक्ति कितनी भिन्न होती है.

मेरे हसने पे न जाना मैंने रोना नहीं सीखा है,
मेरी आँखें नहीं नम तो क्या, दामन मेरा भीगा है.

कहते हैं के आंसू दिल का भार कम करते हैं, पर हर दिन हर रात रो कर भी ऐसा लगता है कि दरिया भी बहा दो तो नज़रों को कम पड़ेगा. और बात तो ये भी है कि कितनी ही मर्तबा मेरे रोने पे आंसुओं ने मुझे धोखा दिया. क्या बिना आंसुओं के गम नहीं छलकता?

ये समझ नहीं आया कि आंसूं नेक हैं कि नहीं,
इन्हें देख कर ही लोगों का दिल आज पसीजा है.

सबूत ढूंढते हैं कि निगाहों में है जलन कि नहीं,
तहकिकात न करें, अश्कों का रास्ता बड़ा सीधा है.


दिल से निकलकर, आँखों से गिरती हैं जो बूँदें,
उनका होता किसी दिल पर बड़ा नतीजा है.


पर उनका क्या जो हसते होठों में छुपते हैं,
अनसुनी सिसकियों ने बस तनहाइयों में चीखा है.

सच तो हमेशा की ही तरह धुंधला है, पर हर रोने वाले की हकीकत यही होती है. मैं मानता हूँ कि तकलीफ में रो पाना कितनी खुशकिस्मतों की खूबी होती है. और कितना तकलीफ देता है गम के कडवे एहसास को बिना सिसकी भरे मुस्कुरा के दिल में समेट लेना. कितना ज़रूरी है हर चाहने वाले के लिए ये जान पाना कि दर्द जो न जुबां पर आ पता है और न ही आँखों में वो दिल में कैसा कोहराम मचाता है. ये खुद पर किया गुनाह बड़ा ही गलत है. इसका इलाज अगली ग़ज़ल में ढूढने की कोशिश करूंगा.

पढने का शुक्रिया.

आपका अतुल.
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