चार कोस , पानी की खातिर


सावन ने अपनी कृपा से कृतार्थ कर दिया है. पानी की सुन्दर बुँदे जहाँ पृथ्वी को तृप्त करती प्रतीत होती हैं, वहीँ मेरे मन में अनायास ही एक सवाल उठा देती हैं. भारत में कुल चार सौ गाँव में पीने का पानी सुलभ नहीं है. और हजारों की संख्या में औरतें (ध्यान दें केवल औरतें ) मीलों चल कर पानी भर भर के लाती हैं. और हममे से कई लोग पानी की कीमत की खिल्ली प्रतिदिन अपने घरों में, अपनी सोसाइटी में उड़ते हैं. कैसी विडम्बना है. यदि आप पानी की कीमत पहचानते हैं तो ज़रा इस कविता को पढें. एक गृहणी अपने छोटे बच्चे को घर छोड़कर पानी के लिए मीलों चलकर, झुलसते हुए जाती है. यदि आपको न्यायाभाव प्रतीत हो तो पानी बचाएं. save water, save life. अफ्रीका में प्रतिदिन दो सौ लोग प्यास से मरते हैं! सोचिये!

चार कोस , पानी की खातिर

मुन्ने को रोता छोड़ आई,
चार कोस पानी की खातिर.

झुलस गई थी धरा भी तपकर,
सिंक चुके थे नंगे पाओं.
प्यास सताती प्यास के लिए,
पर लांग गई कितने ही गाँव.

फिर भी न लडखडाई,
चार कोस पानी की खातिर.

फिर जब लम्बी कतार देखी तो ,
हुआ व्याकुल तन मन प्यासा.
आज नीर की दो बूंद हो संभव,
धुंधली सी लगती आसा.

फिर भी डटकर कतार लगाई,
चार कोस पानी की खातिर.

अब मुर्झा गई तेरी काया,
मन में मुन्ने की पीडा सताती थी,
अब उतरा तो पानी कंठों से उसके,
पर अपनी सुविधा से भी लाज उसे आ जाती थी.

पर क्या करती; प्यास बुझाई
चार कोस पानी की खातिर.

--- ' अतुल '

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