ग़ज़ल

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ग़ज़ल 

समा रंगीन रहे कब तक, हमीं बेजार हो गए,
करने चले थे हम वफ़ा, बेवफा हर बार हो गए.

उम्मींदों से पला और अश्कों से सींचा था,
पक्की फसल थी और बारिश के आसार हो गए.

इस दुनिया में खुदाई मुहब्बत ही से शुरू होती है,
मैंने सर झुका दिया और तुम परवरदिगार हो गए.

कोई ऐसा न था जिसे हम कभी दुआएं देते,
किसी एक को दुआ जो दी वही बीमार हो गए.

उनहोंने ही दिए थे हमको ख्वाब नजरानों में,
मेरी आँखों में सपनों के टुकड़े हज़ार हो गए.

मुहब्बत की वोह जंजीरें शीशे की होती हैं,
कोई ये नहीं मानता हम गिरफ्तार हो गए.

मेरे कई चेहरे हैं, आप किस एक से खफा हैं,
बेबस हैं हम मानिए सभी हमसे गद्दार हो गए.

अपने कारवां को मोड़ने में देर करदी आपने,
हम कभी के किसी काफिले में सवार हो गए.

-- 'अतुल'             पिछली रचना पढें 




ग़ज़ल: रोकना ज़रूर


रोकना ज़रूर 

मेरे जाने से पहले टोकना ज़रूर,
मैं रुकूंगा नहीं पर रोकना ज़रूर.

अपनी हमदर्दी से एहसान कर देना,
शर्मिंदगी से झुकी इक नज़र देना.
मेरे गम से अपने आंसू पोछना ज़रूर,
आंसू रुकेंगे नहीं पर रोकना ज़रूर.

कहीं आपको भी मुहब्बत तो नहीं,
इस घडी को रोकने की चाहत तो नहीं.
ये है वहम तो इसे तोड़ना ज़रूर,
वक़्त रुकता नहीं पर रोकना ज़रूर.

मेरी ग़ज़लों का रुख आप नहीं समझे,
मौके भी आपके पास नहीं कम थे.
कुछ लिखने की कोशिश में गोचना ज़रूर,
कलम रुकेगी नहीं पर रोकना ज़रूर.

-- ' अतुल '                                   पिछली रचना पढें 

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ग़ज़ल


ग़ज़ल

मेरी हर सदा के बदले एक आवाज़ तो दे,
पास है तो अपने होने का एहसास तो दे.

मजबूर हूँ के मैं छू नहीं सकता तुझको,
गम न कर मेरी साँसों को अपनी साना तो दे.

तेरी मौजूदगी मेरी तन्हाई को डराती है,
आने से पहले मेरी देहलीज़ पर खाँस तो दे.

हर ग़ज़ल है अधूरी, इस बात से वाकिफ हूँ,
सुर बैठेंगे लव्जों पर तू ज़रा साज़ तो दे.

हम भी फ़िदा होने की काबीलियत रखते हैं,
तू हमें अपनों में ओहदा कोई ख़ास तो दे.


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ग़ज़ल: एक वाकया

ग़ज़ल: एक वाकया

किताब के बहाने तुमने मुझे याद करो जब बुलाया था,
उसमे एक फूल बड़े नाजों से तुमने पन्नों में दबाया था.

वो फूल आज अरसे से अपने वजूद से बेतहाशा लड़ता होगा,
वही फूल जिसे सौ बार गिरने पर तुमने सौ बार उठाया था.

वो किताब ज़िन्दगी है या वो पन्ने यादें ये तुम जानो,
मुझे बस पता है वो फूल मेरी लाश पर तुमने गिराया था.

खो दिया उसे या दिल के किसी कोने में छिपा रखा है,
ये कफ़न वही टुकडा है जिसे उस रात हमने नीचे बिछया था.

मुझे सौ बार दफन होना हो मंज़ूर अगर तुम मिटटी भरते,
 कुछ खोने के डर से तुमने खो सब दिया जो कभी पाया था.

ये नज़रें चुराकर कहाँ जाते हो, ये आंसू किससे छिपाते हो,
इन्ही के सामने मैंने कई मर्तबा आँखों से पानी बहाया था.

जलाते को शम्मा, जलते को परवाना तो कभी से सब कहते हैं,
कौन कहेगा अकेली कब्र उसकी है जिसने हर लम्हा तेरे साथ बिताया था. 

-- ' अतुल '


ग़ज़ल - तलाश




ग़ज़ल - तलाश
 
हम सर झुकाते फिरे मजारों पे,
मुहब्बत देती थी दस्तक मेरी दीवारों पे.

उस कश्ती को लहरें ले गईं साथ में,
जिसकी राह तकते थे हम किनारों पे.

लूट कर हैं ले गयी जवानी पतझड़ की,
ये इल्जाम है आज इन बहारों पे.

वो यार कल के अब याद नहीं करते,
चलो छोडो यारों की बात यारों पे.

जो महफिल में इशारे किया करते थे,
वो नाचने लगे हैं मेरे इशारों पे.

हम सजाते थे ज़मीं पर आशियाँ किसीका,
कोई सजा रहा है मेरा घर सितारों पे.

-'अतुल'



ग़ज़ल - प्यार के लिए


प्यार के लिए

मौत आती है इकरार के लिए.
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

अब इशारे भी ज़िन्दगी के लिए हैं कम,
खामोशी ने तेरी तोडा हरदम.
कह उठते हैं वो इनकार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

हम पहचान में अजनबी लगते हैं,
तेरे अपने सभी ये कहते हैं.
सफाई देते हैं रिश्तेदार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

हर पल सोचते हैं हो दीदार का,
उनके दर्द-ए-इज़हार का.
हर घडी ठहरती है इन्तेज़ार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

सांस रुकने को ज़ख्म कितने काफी हैं,
कौन जाने कितने अभी बाकी हैं.
घाव खुलते हैं हर बौछार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

वो दर्द, थी ज़िन्दगी जिसमे,
वो सितम, थी हर ख़ुशी जिसमे.
मरते हैं मुझे वो हर बार के लिए,
जब सोचते हैं जिएँ प्यार के लिए.

-'अतुल'


ग़ज़ल

*

जो अरमान बूढे पैदा होते हैं, जवान नहीं होते,
आजकल मेरे रोने पर पड़ोसी मेरे हैरान नहीं होते।

तार्जुब होता है की अंधेरे ने हमें मारा है डराकर,
यहाँ तो अंधे भी दिए जलाते हैं परेशान नहीं होते।

छटपटाते बदन के सीने में कोई खंजर देदे,
नेक लोग यहाँ , एक से तमाम नहीं होते।

कब्रिस्तान में मुझसे कई बस यूँ ही लेते हुए थे,
लाशों पे उनके मौत के कोई निशान नहीं होते।

ज़िन्दगी की गुलामी एक अरसे से है की मैंने, फिर क्यूँ,
मेरे सपने मेरी हकीकत के गुलाम नहीं होते।

ये कोई ज़िन्दगी नहीं न मौत का ही ज़िक्र है,
ये तो मुहब्बत है, इसके सिलसिले कभी आसान नहीं होते।
- ' अतुल '




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