नज़्म : गुडिया की कहानी

एक छोटी सी गुडिया की कहानी कहो तो सुनाऊं,
पलकों में रहती थी रह रह के मुझे सताती थी |

बाँहों में गुलदस्ते लपेटे खुशबु सी लगती कभी,
कभी कानों में मेरे फिज़ा का दर्द गुनगुनाती थी |

क्या राज़ है, किसको पता दबी सी मुस्कान के पीछे,
या वही बात है जो वो तसव्वुर में आके बताती थी|

मचल उठती थी प्याले में बंधे नशे की तरह,
कभी मोती के कीमती टुकड़े अश्कों से बहती थी|

उसका आशियाँ था मेरे दिल का हर कोना,
मेरे आगोश में, मेरी मुहब्बत में हर शाम नहाती थी|

मेरी पलकों की चादर ओढ़ कर सोती थी बेहोश सी,
हर रात हकीकत से लड़कर मेरे आगोश में समाती थी|

'अतुल'

उड़ान

पंखों पर उड़ने को ज़माना आज भी बेताब है |
मेरी उड़ान है फीकी, मेरे पंखों पे तेज़ाब है |

परिंदे जो घोसलों से गिर पड़े फिर उड़ेंगे,
कल भले थे कांटे, आज क़दमों तले गुलाब है |

क्यूँ टूटना चाहते हैं बादल पहाड़ों की चोट से,
क्यूँ मचाया कश्तियों ने साहिल पे सैलाब है |

बेकार गुफ्तगू है, क्या अंजाम होगा हौसलों का,
होश पर भारी  नशा है, नशे पे भारी शराब है |

नीयत पे सवाल है खुदके, पर ये पूंछता हूँ ,
नेकी है कहाँ आजकल, ज़माना बड़ा ख़राब है |
 
' अतुल '

अंदाज़-ए-मुहब्बत

बड़ी गुमनाम गलियां हैं, हमें सब गैर बताते हैं |
कोई है रूबरू हमसे शक्ल पर बैर दिखाते हैं |

थोड़े इशारे कर के छुप गए हैं वो जुगनू जिन्हें,
हम परवाने जानकार जाने कब से जलाते हैं |

इस ज़िन्दगी का एक पल तो खुल के हम जीलें,
कि इस इक पल भी वोह हमसे खुदको छुपाते हैं |

अभी भी डर गए तो कब उठेंगे अरमान अनकहे,
उम्रभर के वादों को चलो इसी पल निभाते हैं |

दूरियां हैं ऐसी हम उन्हें कोस भी तो नहीं सकते,
इन्हीं फासलों से वो हमसे मुहब्बत जताते हैं | 

' अतुल '



खैर

हर बार मुझे वोह अपनों में गैर करते हैं,
खूब है दीवाने जलते हैं बेवफा खैर करते हैं |

सम्हाल के रखते हैं कदम वोह मेरे सामने,
और हर शब् ख्वाबों में मेरे सैर करते करते हैं |

कई तमन्नाएं बनीं नासूर मेरे सीने में,
वो मेरी हर अदा से क्यूँ भला बैर करते हैं |

झोंक कर अंगारों में मुहब्बत के चिराग,
ज़िन्दगी के आशियाने की हम खैर करते हैं |

' अतुल '

ग़ज़ल : वो लोग

मोहताज हैं जो किस्मत के वो खाक सज़ा देते हैं,
महरूम थे जो उजालों से वोह चिराग बुझा देते हैं |

भीड़ में घुसते हैं जो मुजरिम ढूँढने के बहाने से,
पूंछो तो उनसे वोह किसको पास पनाह देते हैं |

वोह डरते थे इल्जामों से इस कदर कि छुप गए,
वोह ही तो खुद अफ्वाओं को हर बार हवा देते हैं |

खामोश थे हर मुकद्दमे में नजाने क्यूँ अब तलक,
क्यूँ आज वो ही अकेले इन्साफ को सदा देते हैं |

और हसने से हम थे डरते, नज़रों से बचते थे,
आज हम भी खुशियों को दिल से वफ़ा देते हैं |


  ' अतुल '

धनुषकोडी की यात्रा

शायरी ब्लॉग पर एक यात्रा वृत्तान्त थोडा अजीब लगता है पर मैं इतनी छुट अवश्य लूँगा |  कुछ समय की लीवर की तकलीफ के ठीक होते ही मां ने जिद्द पकड़ ली कि अब जो हों जाये शिवजी के परम धाम रामेश्वरम तो जाना ही चाहिए और पिताजी ने ज़यादा विरोध भी नहीं किया | तो फिर क्या था, हम सब निकल पड़े | रामेश्वरम बड़ा ही भव्य था पर उसके बारे में लिखना पसंद नहीं करूंगा | दो कारणों से - पहला ये कि रामेश्वरम पर तो बहुत लेख यूँ ही मिल जायेंगे और दूजा ये कि मैंने रामेश्वरम में ऐसा कुछ ख़ास नहीं पाया जिसपर अपने विचार व्यक्त कर सकूं | तो फिर आपका ये प्रश्न कि मैं आखिर क्या लिखूंगा, बड़ा ही स्वाभाविक है और उतना ही जितना मेरा धनुषकोडी के बारे में लिखना |

अनेकानेक मंदिरों में माथा टेकने के बाद, मठों में शांति अनुभव करने के बाद, तैरते पत्थर (जो दरअसल कोरल जीव थे ) देखने के बाद भी  मैं इस बात से सहमत नहीं था कि कभी राम ने इतिहास में ऐसा कोई पुल बांधा भी था | विज्ञानं का अनुयायी होने के कुछ अनचाहे परिणामों में से एक श्रद्धा का कम होना भी है | हालाकि मैं ऐसा नहीं मानता कि मेरी ईश्वर पर से श्रद्धा  कम होती है पर हाँ राम पुल पर से तो भरोसा उठ ही गया | शायद इसी लिए मैं उन सब पर लिखना नहीं चाहता | पर रामेश्वरम में मंदिरों और आस्था वाले समता स्थलों से हट कर भी कुछ था जो मेरे लिए रामेश्वरम धाम में शिव दर्शन जैसा ही महत्व रखता है | और वह है धनुषकोडी का अद्भुत अनुभव |


रामेश्वरम के प्रमुख धराखंड से एक पतली सी रेतीली पट्टी से जुड़ा हुआ है एक अद्भुत रेतीला छोर, एक छोटा सा गाँव जिसे धनुषकोडी के नाम से जाना जाता है | पर ये गाँव सिर्फ एक गाँव नहीं है ये प्रकृति की अद्भुत शिल्प कला का नायाब प्रदर्शन है | दोनों तरफ से ही समुद्र से घिरा है ये गाँव और जहाँ एक तरफ समुद्र तलब जैसा शांत है वहीँ दूसरी ओर से समुद्र के विकराल स्वरुप का परिचायक | पूर्व दिशा से पानी में हलकी हलकी मौजें उठ रहीं थी और उसकी ज़िम्मेदारी भी हवा कि गति ले रही थी | कुछ मीटर की दूरी पर पश्चिन किनारे पर लहरें इस फासले को खत्म करने पर उतारू हों रहीं थीं | साथ चलते आदमी ने मेरे अध्ययन करते स्वाभाव को पहचानते हुए तमिल में कुछ कहा मैं लगभग यही समझ पाया कि वो लहरों के विषय में कुछ बताने की चेष्टा कर रहा था | मैंने एक बड़ी मुस्कान के साथ कहा कि मुझे तमिल नहीं आती ' तमिल इल्लै '| इस पर वो हसने लगा और अपने साथ के एक पुरुष से कुछ कहा और फिर अपनी अंग्रेजी पर पूरा जोर लगाया और कुछ टूटी फूटी अंग्रेजी में भाव प्रकट किया | उस पुरुष के अनुसार आधे वर्ष समुद्र एक ओर शांत रहता है और आधे वर्ष दूजी ओर  | मैं इतना ही समझ पाया या फिर यूँ कहें कि वह इतना ही समझा पाया |

धनुष कोडी का रास्ता इतना रेतीला और कीचड़ से भरा हुआ था कि ड्राईवर के हुनर की दाद देनी पड़ेगी | उसने मक्खन कि तरह गाड़ी को घुमाया और ज्यादा तकलीफ दिए बिना ही हमें गाँव ला पहुँचाया | कुछ ही देर में खंडहरों से भरा गाँव दिखने लगा | चारों ओर कंटीले पौधे उगे हुए थे रेत में कहीं छुपती और कभी दिखती एक रेल पटरी के अवशेष थे | वहीँ एक ढांचा बना हुआ था जो एक रेल प्लेटफोर्म की छवि बना रहा था | कुछ ऊँचे पक्के मकानों के खँडहर भी थे जो अंग्रेजों के ज़माने के डिजाइन लग रहे थे | कुछ इतने मज़बूत कि अभी भी शान से खड़े थे हालाकि काफी हद तक उन पर पेड़ पूछे उग गए थे | ऐसा प्रतीत हों रहा था कि धनुषकोडी खुद में किसी विनाश की कहानी को अपने अन्दर दबाए हुए था |


 एक भद्र पुरुष ने पिताजी के साथ बात छेडदी | पता चला कि यहाँ एक अच्छा खासा गाँव हुआ करता था और यहाँ रेल स्टेशन , अस्पताल , पोस्ट ऑफिस, जेट्टी (छोटा पोत गृह ) , फिशेरी ऑफिस सब हुआ करता था | १९६१ तक यहाँ से श्री लंका के लिए नावसेवा हुआ करती थी क्यूँकि यह श्रीलंका के सबसे करीब छोर था | तब यह काफी सुन्दर, विकसित और संपन्न पर्यटक स्थल था | १९६१ के तूफ़ान ने ऊंची लहरों से इस गाँव को निगल लिया, अब यह खंडहरों से भरपूर एक मायूसी का प्रचारक मात्रा रह गया है | समय समय पर समुद्र धनुषकोडी को बाकी खंड से अलग करने के प्रयत्न करता रहता है | मनुष्य और प्रकृति एक दुसरे से लड़ते दिखे | प्रकृति परम शक्तिशाली अवश्य है पर मनुष्य के मनोबल और सहनशक्ति की भी कोई सीमा नहीं होती | वहां कुछ ही पक्के मकान बचे दिखे और उनमें से एक है चर्च और दूसरी है पाठशाला | लोग कच्चे मकानों में रहते दिखे | पास में ही एक बच्चा (बच्चा कहना गलत होगा, वो काफी बड़ा था ) लंगोट में ताड़ के पेड़ की छाँव में निद्राधीन दिखा | अन्य वातावरण में यह अश्लील कहा जा सकता था पर भीषण गर्मी देखते हुए न केवल मुझे वो सही जान पड़ा बल्कि लगा कि या तो मैं भी सामाजिक व्यवधानों को भूल जाऊं या फिर सागरमग्न हों जाऊं | पर मैंने आगे बढ़ना बेहतर समझा |


चौंकाने वाली बात तो ये थी कि धनुषकोडी जैसे धार्मिक तौर पर महत्त्वपूर्ण स्थान पर मैंने एक मंदिर नहीं पाया | मान्यता है कि श्री राम ने यहीं से लंका के लिए अपने धनुष से सेतु बनाने के लिए पहली लकीर खींची थी और फिर सीता को मुक्त करने के पश्चात् जब वो लौटे तो विभीषण के आग्रह पर उन्होंने अपने धनुष के प्रहार से सेतु को नष्ट कर दिया | इसी कारण इसका नाम पड़ा "धनुषकोडी" अर्थात धनुष का छोर (अंत)| मान्यता यह है कि कशी यात्रा बिना रामेश्वरम दर्शन और धनुषकोडी स्नान के साम्पन नहीं समझे जाते |

आखिर हम वहां पहुंचे जहाँ बंगाल कि खाड़ी और हिंद महासागर का सुन्दर आलिंगन हों रहा था | यह हिस्सा एक लम्बा रेतीला छोर था | सुन्दरता बस देखते ही बन रही थी | थोड़ी देर के लिए मैं भूल गया था कि तपता सूरज हमारे इस विचरण से खुश नहीं था | वहीँ एक औरत मोतियों की मालाएं और झुमके बेचती दिखी और मां का ध्यान आभूषणों की सुन्दरता की ओर चला गया | पर सच पूंछे तो उन मोतियों की बात ही निराली थी | बड़े बड़े प्रकृति के समुद्रीय नज़राने कड़ी धूप में हीरों से भी भव्य प्रतीत हों रहे थे | वो मोती बाज़ार के मोतियों से अलग थे | साथ ही में कुछ और रत्ना भी थे | औरत ने मां को मोतियों से मोहने के बाद दाम बताया | और बिना ज्यादा तोल मोल लिए मां ने उन्हें खरीद लिया | मैंने कुछ और मोती बिने पर अपने कैमरे में | सुन्दर तस्वीरें खींच कर हमने सूर्य देवता के आगे आत्मा समर्पण कर दिया और जा कर गाडी में बैठ गए | लौटे हुए मैंने आँख भर कर सब कुछ जितना हों सके सब बटोरना शुरू कर दिया| देखते देखते छोर गायब होने लगा | खँडहर रेत के पीछे छुपने लगे और धीरे धीरे सूरज भी अपनी भड़ास निकल कर शांत हों गया | बाकी सब गाड़ी में सो चुके थे और मैंने भी धनुषकोडी के आखरी नज़ारे के साथ मैंने भी ऑंखें बंद करलीं |
(लेख के साथ की तसवीरें छवियाँ मेरी नहीं हैं, इनका श्रेय उनको खींचने वाले सज्जनों को जाता है | ) 

नज़्म : मैं

मेरा हर सफ़र है शुरू वहीँ से,
मैं जहाँ से जब कभी चल रहा हूँ |

बड़ी धूप है ज़रा ठहरने तो दो,
शक है, मैं ज़रा-ज़रा गल रहा हूँ |

तूफान तो आने ही थे, है खबर,
आज मैं जो फिर से सम्हल रहा हूँ |

मुझे रोकने की गुस्ताखी न करना,
मैं आजकल जोर से जल रहा हूँ |

कोई छीन ले तो चैन देना न उसको,
चैन खो कर मैं धीरे धीरे ढल रहा हूँ |

ऐ खुदा, मैं क्यूँ तेरी राह पे भी, 
शैतानों सा ही मचल रहा हूँ|


मुझे  दोस्तों का साथ गवारा नहीं,
मैं अकेला ही जी आजकल रहा हूँ |

'अतुल'

ग़ज़ल : ज़िन्दगी आज फिर से

ज़िन्दगी आज फिर से बदलने लगी,
रात पत्तों के पीछे है ढलने लगी|

दुनिया हम से लडती थी, हम वक़्त से,
सांस अब तो फतह में सम्हलने लगी|

हम हैं शीशे क्यूँ पत्थर से टकरा गए,
पत्थर में नमी क्यूँ मचलने लगी |

कोई दर्द ले कर चले जा रहे थे,
 नई बात फिर से निकलने लगी|

बुस्दिली के थे कायल जो अब तलक,
उनमे लड़ने की चाहत उछलने लगी|

 - 'अतुल'

ग़ज़ल : देखा है

ग़ज़ल लिखते समय कभी मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि मेरी रचना कितने नियमों पर खरी उतरेगी, गर ख्याल रहा तो महज़ इसी बात का की जज़्बात बखूबी उभर आये| हमेशा यही कहूँगा कि थोडा बहुत प्रयोग हमेशा करता हूँ नई नई शिलियों के साथ| लिखने की कोशिश इस लिय्स करता हूँ क्यूंकि इन रचनाओं के माध्यम से बंधन से मुक्त हों सकूं| रदीफ़ और काफिये पर ज्यादा ध्यान न दें, वरना ग़ज़ल नाराज़ हों जाएगी.... मजाक कर रहा हूँ| पढने का शुक्रिया ......

मैंने ज़िन्दगी का हर शक्स देखा है,
आईने में मैंने हर अक्स देखा है|

सुना है इश्क की चिंगारी बुझती नहीं,
नज़रों से  शोलों को बुझते देखा है|

सपने बह गए इशारों में ही क्यूंकि,
मैंने भीगी आँखों से सपना देखा है|

मैंने देखा उन्हें कई वादे करते हुए,
मैंने उन्हें रिश्तों को तोड़ते देखा है|

लहरों से मैंने चट्टान को कटते देखा,
मैंने सैलाब सीने में छुपते देखा है|

आंसुओं के ठिकानों में उम्मीदें देखी,
आंसुओं के साथ उनको बहते देखा है|

मेरी तस्वीर आँखों में है इतनी बुरी,
ज़ख्मों पे मैंने खुदा को हसते देखा है|

राहों पे मैंने यारों को बढ़ते देखा ,
मायूसी को मेरे लिए रुकते देखा है|

सोचता था आसमां है हौसला मेरा,
मैंने तो आसमाँ को भी झुकते देखा है|

'अतुल'

मुहब्बत

मुहब्बत समझना और करना दोनों ही महज़ इत्तेफाक़न ही होता है |
पर आज ऐसा लगता है कि ज़रूर ये कुदरत का इशारा है |

तो सोचा कि बारिश क्यूँ होती है? क्या बारिश ये पूंछती है कि वोह क्यूँ बरसे? ज़मीन प्यासी है भी कि नहीं? क्या उसकी ज़रुरत है भी या नहीं? नहीं, कभी नहीं? वोह सिर्फ बरसना जानती है | कभी सावन कि मर्ज़ी से तो कभी बिना सावन के ही बेवक्त ही बरस उठती है | किसे पता बरसने में उसकी मर्ज़ी भी शामिल है या नहीं |

ये भी सोच कि लहरें सागर के कगार पर बार बार क्यूँ आती हैं? उन्हें तो फिर लौटना ही है| क्यूँ बेसब्र होके आ गिरती हैं? क्या सोचती हैं, साहिल को साथ ले जायेंगी? या ये सोचती हैं कि हों सकता है इस बार साहिल हमें लौटने न दे, आगोश में भर ले| पर इतनी मर्तबा बेबस, लाचार और हताश हों कर लौटने के बाद भी वोह बार बार उसे भिगोती हैं, उठती हैं, गिरती हैं, हर पल हर लम्हा सब जान कर भी वोह फिर लौटती हैं| हर बार भिगोने पर भी साहिल का दिल नम नहीं होता| वोह साहिल का हक है| उसे हक है कि वोह न हिले और ये लहरों का भी हक है कि वोह उसे भिगोने से न चूकें|  पर हाँ सदियों की मुहब्बत से साहिल बदलता  है| मुहब्बत कभी ज़ाया नहीं होती| उसका असर हर शय पर होता है, कभी न कभी| चट्टान टूट जाते हैं, किनारे कट जाते है और साहिल बदल जाते हैं|

मुहब्बत का सबसे बड़ा सबक तो हमने खुदा से ही सीखा|  उसने पूरी कायनात बनाई पर खुद अकेला रह गया| खुदा ने अपने लिए कुछ नहीं बनाया| इंसान को बनाया और ये हक भी दिया कि वोह उससे मुहब्बत करे या नफरत| और अगर उससे नफरत करे तो इसके बावजूद वोह सबसे उतनी ही मुहब्बत करता है| मुहब्बत के बदले में मुहब्बत न मिलना बस उसे ही गवारा हों सकता है जो मुहब्बत करना जनता हों| खुदा, तेरी मुहब्बत को सलाम|

नज़्म : सांस तुम्हारी होती है

एक लम्बे विराम के बाद मैंने कलम को तकल्लुफ दिया है | और ये मानना इमानदारी होगी कि कुछ अच्छा ज़हन में आ भी नहीं रहा था | कुछ यूं हुआ कि पुरानी बातें फिर सामने दोहराने लगीं | लगा कि मैं तो कहीं और ही चला गया था | सब कुछ वैसा ही तो है | अब आखिर अपने इतिहास से कोई कितना भाग सकता है | बस इतना सोचा ही था कि यह नज़्म ज़हन में आ गयी | जाने अनजाने में मुहब्बत किसी न किसी बहाने से जिंदा रह ही जाती है | लिखा है .......

तन्हाई में मेरी मुझसे हर बात तुम्हारी होती है,
धड़कन खामोश है सीने में पर सांस तुम्हारी होती है |

आखिर में जी कर हर शय को मिटना ही तो होता है,
नाज़ुक है, इस वीराने में भी आवाज़ तुम्हारी होती है |

ना जाने किस मोड़ पे गिर कर राह नई ढूंढी हमने,
मैं भटक गया पर यहाँ से हर राह तुम्हारी होती है |

आँखों में ख्वाब लिए चलता हूँ कब कोई आहट हों जाये,
हर दिन तो तेरा था कबसे अब हर रात तुम्हरी होती है |

थोड़ी सी नीयत बुरी भी थी पर दिल मेरा नादान था,
अजी दिल तोड़ने की अदा भी ख़ास तुम्हारी होती है |

जायज़ क्या और क्या नाजायज़, इस बात पर क्यूँ अड़ना,
इबादत मेरे करने से तबियत क्यूँ नाराज़ तुम्हारी होती है |

' अतुल '

ग़ज़ल : इस शहर का दस्तूर

इस शहर का तो लगता यही दस्तूर है,
यहाँ मुहब्बत को इबादत नहीं कहते.

परछाई बनकर देखो कि जीना क्या है,
मेरे होने को यहाँ हकीकत नहीं कहते.

यहाँ ज़माने से लड़ना बगावत है,
मुहब्बत में मिटने को शहादत नहीं कहते.

महबूब यहाँ बिछने को कालीन होते हैं,
खूब है यहाँ महबूब को हसरत नहीं कहते.

किसी की चोट पर जान निकलती है,
इस मर्ज़ को यहाँ मुहब्बत नहीं कहते.

मेरे सीने के घाव उनके तोहफे ही हैं,
उनके किसी वार को हम नफरत नहीं कहते.

- "अतुल"

ग़ज़ल

अभी इतनी सी तो उम्मीद है कि,
कम से कम तेरे गुलशन तो आबाद हैं.

थोडा सा सावन कितना बरसता,
पर आँखें अभी भी बरसने को आज़ाद हैं.

मेरे घर और उनके घर का नाता है कुछ,
दुनिया तो दोनों तरफ ही बर्बाद है.
थोड़ी सी हलचल थी मेरे घर में,
थोडा उनके भी घर में फसाद है.

ठोकर ज़मीन पर खाते रहे,
अपनी हालत तो हमेशा से ही ख़राब है.
पहले हाथों में गुलाब था,
आज कल हाथों में शराब है.

मेरी हर बात बोरियत होती है,
अच्छा है कि उनकी अलग हर बात है.
मेरी आँखों में जो अश्क कमजोरी कहलाए,
वोह उनकी आँखों में जज़्बात है.


शुक्रिया

'अतुल'

कोई आने को है

दस्तक है, कोई आने को है.

वो शहर यहाँ उजड़ा था कभी,
वहीं कोई बस्ती बसाने को है.

मैं ही था राह में ताकता ही रहा,
राह वहीँ से  मुड जाने को है.

तोड़ हर कसम, आज उनके पास,
कोई वायदा निभाने को है.

हद से जियादा मांग लिया आपने,
मेरा सब्र शायद टूट जाने को है.

' अतुल '

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