ग़ज़ल: एक वाकया

ग़ज़ल: एक वाकया

किताब के बहाने तुमने मुझे याद करो जब बुलाया था,
उसमे एक फूल बड़े नाजों से तुमने पन्नों में दबाया था.

वो फूल आज अरसे से अपने वजूद से बेतहाशा लड़ता होगा,
वही फूल जिसे सौ बार गिरने पर तुमने सौ बार उठाया था.

वो किताब ज़िन्दगी है या वो पन्ने यादें ये तुम जानो,
मुझे बस पता है वो फूल मेरी लाश पर तुमने गिराया था.

खो दिया उसे या दिल के किसी कोने में छिपा रखा है,
ये कफ़न वही टुकडा है जिसे उस रात हमने नीचे बिछया था.

मुझे सौ बार दफन होना हो मंज़ूर अगर तुम मिटटी भरते,
 कुछ खोने के डर से तुमने खो सब दिया जो कभी पाया था.

ये नज़रें चुराकर कहाँ जाते हो, ये आंसू किससे छिपाते हो,
इन्ही के सामने मैंने कई मर्तबा आँखों से पानी बहाया था.

जलाते को शम्मा, जलते को परवाना तो कभी से सब कहते हैं,
कौन कहेगा अकेली कब्र उसकी है जिसने हर लम्हा तेरे साथ बिताया था. 

-- ' अतुल '


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