थोड़ी दुनिया मेरी भी

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि समाज हमारे लिए दायरे किस हद तक बना सकता है. वो क्या सीमा है जहाँ हम समाज को ये हक से कह संकें कि इसके आगे आप को नहीं दखल देना चाहिए. और हर बार मैं यही समझ पाया कि या तो समाज को दखल देने का हक है या फिर नहीं ही है; ऐसी कोई हद नहीं हों सकती जो समाज और एक व्यक्ति की सीमाएं तय कर संकें. इसी असमंजस में एक नज़्म लिख रहा हूँ. सुनिए..

वहां भी तुम्हारी सुनकर,
कोई रोया फूट-फूट कर.
यहाँ भी कोई लड़कर,
टूटा आखिर जूझ-जूझ कर.

तमाशा ताकें आँखें मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

तेरी हर एक बात सुनी,
पर ये मेरी दहलीज़ है,
झूठे अंधे कानून सुने,
जज़्बात भी सभी नाचीज़ हैं.

चीत्कारों के बीच में है एक चीख मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

ज़ख़्मी जानवर के लिए भी
उनको तड़पते देखा मैंने.
इंसान के लिए नफरत से,
बस इतना ही सीखा मैंने.

यहाँ दफ़न लाशों में एक लाश है मेरी भी,
आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

बहुत रूठकर भी मैं यही कह पाया,
बुस्दिली में है एक आवाज़ मेरी भी.
तू जीता, मैं लांग न पाया,
इस दायरे में है फिर भी, एक दुनिया मेरी भी.

आखिर थोड़ी दुनिया मेरी भी.

' अतुल '

शायर पर मुकद्दमा

गुस्ताख ये ज़िन्दगी है,
कि हर बच्चा मुकद्दमे की तारीख लेके पैदा होता है.
ज़माने की बंदगी है,
कि अदालत की छाँव में यहाँ कोई गुनाहगार पैदा होता है.


बोलते है सबूत और किताबें कानून की,
इंसान यहाँ खामोश हों जाते हैं.
मिटटी की आँखों में यहाँ,
आंसूं सभी एहसान फरामोश हों जाते हैं.


चेहरे पर हँसी होती है,
अन्दर दिल में तूफ़ान होता है.
उसूलों पर इलज़ाम की जंजीरें होती हैं,
हर मुसाफिर यहाँ परेशान होता है.


शक है किसी के ईमान पर,
इल्जामों पर उसके मशाल है.
अँधेरे में जुबां पर सच है,
पर सच की हकीकत पर सवाल है.


कुछ सज़ा देंगे और कुछ  
मेरे दामन पर दाग यूँ देंगे.
कि मेरी मय्यत में आकार  भी,
मेरी मौत का सबूत पूंछेंगे.


मुसाफिर कई होंगे जो अँधेरे से हारकर,
दिलों की शम्मा बुझायेंगे.
ज़मानत की कीमत है इतनी,
कि जान देकर भी चूका न पायेंगे.


पर ये मुसाफिर कोई और होगा,
मिटकर भी ईमान से बढ़कर उसका निशाना क्या होगा.
आये गए दीवाने कई पर,
बिना जले कोई दीवाना परवाना क्या होगा.
परवाने से बढ़कर कोई यहाँ दीवाना क्या होगा.




नए साल की बहुत सारी शुभकामनाएं.


' अतुल '

ग़ज़ल : बहाना

सूफी संगीत में ग़ज़लों में खुदा को महबूब बताया जाता है. और मुहब्बत को इबादत. शायद इसी लिए सूफी सुन कर ऐसा एहसास होता है कि खुदा के करीब ही अपनी रूह जा पहुंची हों. आगे जो लिख रहा हूँ उसके ज़रिये मैं खुदा को बस एक बहाना समझकर एक चाहनेवाले की इबादत का नमूना पेश कर रहा हूँ. खुदाई तो बस मुहब्बत का बहाना है. गौर फरमाइयेगा ..... 

सांस चलती है सीने में, तेरी इनायत है,
खुदा की मर्ज़ी तो बस एक बहाना है.

हों रहीं थी मुकम्मल जबसे दुआएं मेरी,
मैं ये समझा था तुझे अब तो आना है.
लड़ रहा था मैं खुदा से तेरे लिए,
मेरी खुदगर्जी तो बस एक बहाना है.

मेरे खंडहरों में तेरी ग़ज़ल गूंजी है,
ये गीत वही अपना बड़ा पुराना है.
रोज़ रोता हूँ तेरी जुदाई में मैं,
नग्मे गाना तो बस एक बहाना है.

किसी ने कहा है ये पागल कोई,
कोई ये न समझा कि दीवाना है.
मैं आशिक ही होने को आया यहाँ,
ये नाम होना तो बस एक बहाना है.    

तुझे पहचान कर मेरी पहचान को,
खो दिया मैंने, अब क्या गंवाना है.
तेरा नाम ही लेके जिंदा हूँ मैं,
न याद आना तो बस एक बहाना है.

तेरे दीदार से ही रगों में मेरी,
जान दौड़ी, गवाह ये ज़माना है,
तेरा दामन छोड़ते ही मर गया मैं,
सांस लेना तो बस एक बहाना है.

बहुत शुक्रिया.
' अतुल '

मेरे मरने की खबर

आज तो जिन्देगी भी मुझपर बेतहाशा तरस खाई है,
दीदार दीजिये अब तो, मेरे मरने की खबर आई है.

आज से पहले ग़लतफ़हमियों में जी रहे थे हम भी,
आज ही तो कुछ बारीकियां हमको  नज़र आई हैं.

छोटी सी दुनिया है यहाँ दरिया भी दरिया से मिलते हैं,
मिलने की उम्मीद में ही, आज चांदनी उतर आई है.

थोड़ी सी दुनिया मेरी भी थी इस दुनिया के बीच में,
मेरी कश्ती के साथ ही कोई और भी लहर आई है.

शुक्रिया
 ' अतुल '

ग़ज़ल : बात पुरानी हों गयी

जो पूंछते हैं आज वो तो बात पुरानी हों गयी.

एक बूँद को प्यासे सहरा में भी कोई खिलता है,
वो बूँद का प्यासा था, वो बूँद दीवानी हों गयी.

हमसे ही लड़ते थे सब, हम खुद ही से लड़ पड़े,
सबके आशियाने सजे, मेरी दुनिया वीरानी हों गयी.

उम्मीद ही एक थी जो तुमने छोड़ी थी मेरे लिए,
उसका लुटना भी अजी, एक और कहानी हों गयी.

जिस पर हम गिरे थे वो ठोकर भी उन्ही की थी,
जिनके थे मरहम, ज़ख्म भी उनकी निशानी हों गयी.

हर फूल के खिलने की एक उम्र अलग ही होती है,
वही बर्बाद था बचपन, वही बर्बाद जवानी हों गयी.

शुक्रिया

' अतुल '

ग़ज़ल

तोड़ कर बंदिशें ज़माने की हम तो जीते हैं,
यहाँ सब गैर हैं, गैरों से शिकायत नहीं करते.

हम हैं मेह्फूस इन्ही जंजीरों में वो कहेंगे,
अजी भेडिये कभी भेड़ों की हिफाज़त नहीं करते.

उनकी हमदर्दी मेरी मुहब्बत को रियायत थी,
जल्लाद हैं वो, आशिकों से रियायत नहीं करते.

उनके बहाने फ़र्ज़, मुकद्दर और खुदा की मर्ज़ी हैं,
सुना मैंने कि परवाने खुदा की इबादत नहीं करते.

ज़माने के सामने मेरी इज्ज़त भी छोटी पड़ी,
नाज़ुक है दिल ये, इसके साथ शरारत नहीं करते.

शुक्रिया
' अतुल '

ग़ज़ल : गम-ए-दिल

गम-ए-दिल को गले लगाते हैं बिना सोचे समझे ही,
रोज़ मरने का इस से बढ़कर कोई ज़रिया नहीं होता.

हर मुअक्किल है परेशान मेरी हर सोच से क्यूँ,
सच को देखने का ऐसा कोई नज़रिया नहीं होता.

दिल ये भर आता है तो कभी अकेले में रो लेते हैं,
दिल बह जाए कितना भी, दिल दरिया नहीं होता.

ये वो शम्मा है जिसमे सभी कुछ जल जाता है,
लाख जले अंगारा अँधेरे में वो दिया नहीं होता.

आपके कीमती वक़्त के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, अपनी राय ज़रूर दीजिये.
एक बार फिर शुक्रिया.

' अतुल '

नज़्म : आज मुझे जी लेने दो

मुक्तछंद लिखने का अपना ही आनंद अलग होता है. यही सच्ची रचनाएँ होती  हैं. ऐसा इस लिए कि लिखने वाला बिना बंदिशों के, बिना मात्राओं की परवाह किये, जो जी में आये, जैसा जी में आये लिख सकता है. हलाकि ऐसी रचनायें ताल पर नहीं बैठ पातीं और न ही सुरों का साथ ही दे पातीं हैं, पर हाँ इनमें एक सादगी और इमानदारी ज़रूर होती है, एक भोलापन  होता है. इनमें अलंकार  से  अधिक  महत्ता  भावनाओं की होती है. बिलकुल एक नदी की तरह जिसे बस अपने वेग की ही सुध है, अपने स्वरुप, अपने आकार की नहीं. वह बस बहती जाती है. इसी के साथ आपके लिए ऐसी ही कविता लाया हूँ.  कविता का भाव हैं जीवन में जीवन का सूनापन. जो जीवन प्रभु ने जीने के लिए दिया है हम उसमें बस खुल के जी ही नहीं पाते.


आज मुझे जी लेने दो.

भर के तोड़े थे मैंने,
कल वो वीराने बंजर.
आज चौंक के जागे हैं,
अरमान तड़प के मेरे अन्दर.

नए वक़्त की नई पीड़ा है,
घाव सभी सी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

यहाँ मोह की मधुशाला ने,
मुझे प्यासा ही छोड़ा है.
वहाँ अश्रुओं की धारा ने,
सब बंधनों को तोडा है.

जन्मा था मैं प्यासा ही,
जी भर के मुझे पी लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.

सब कुछ मेरा बँटा हुआ था,
मेरी चाह कोई अनजानी थी.
किस ओर चलूँ मैं कटी पतंग,
हर दिशा लगी सुहानी थी.

बहुत बँट गया खुद ही में,
अब तो पक्ष सही लेने दो.
आज मुझे जी लेने दो.


पढने का शुक्रिया.

'अतुल'

ग़ज़ल : कुसूर

दीवारों से मैं चीखके, आये दिन हूँ ये पूंछता,

मेरे खुदा दे बता, आखिर मेरा क्या कुसूर था.

जब मौत की तलाश थी, ज़िन्दगी का साथ था,
जब ज़िन्दगी ने मांग की, आपने दिया वास्ता.

नज्मों की तरह नाजों से हर लव्ज़ मैंने पिरोया,
याद है हर बात मुझको, याद है हर एक वाकया.

मेरी मजबूरी है ऐसी कर नहीं सकता बयान,
हँस के रोता हूँ मैं कैसे, बस खुदा ही ये जानता.

मैं आँखों में भी तेरी पुकार ले कर ही सोता,
जाने तू मिले किस सहर में, कौन सा वो रास्ता.

ऐसा नहीं के तुझसे रूठने की मैंने कोशिश न की,
हर बार खुदसे ही मैंने पाया खुद ही को खफा.

जाने किस हंसी ख्वाब में थमा तुने मेरा हाथ था,
तेरा भी खुदा होंगा कोई, है कसम तुझको न जगा. 


पढने का बहुत बहुत शुक्रिया,

'अतुल'

शायरी : एक सवाल देदो

मैं अंधेरों से लड़ता हूँ कोई मुझे मशाल देदो,
पूंछता हूँ मैं बेजुबान की तरह, एक सवाल देदो.

हकीकत गिरवी रक्खी मैंने मुहब्बत की सेज पर,
तमाशा हूँ बना मैं हर ओहदे वाले की मेज़ पर.

आवारगी और आशिकी की हद किसने पहचानी है,
कब्र से कब्र है जिस तरह, इंसानियत अनजानी है.

सहारा बनकर ज़िन्दगी देना उनकी हमदर्दी थी,
ये मानना मेरी सज़ा, न मानना मेरी खुदगर्जी थी.

मेरी हालत पे रहम हो तो होश थोडा उधार देदे,
मेरी बीमार हसरत को थोड़ी दवा इक बार देदे.

एक आंसू तो बहालूँ, मुझे अपना रुमाल देदो,
उसके बाद हर मौसम भले, मुझे बदहाल देदो.

आपकी शाबाशी के कायल हैं हम, आपसे गुजारिश है कि अपने ख्यालों से मुझे अवगत कराएँ. पढने का बहुत बहुत शुक्रिया. धन्यवाद्.

                                  'अतुल'

ग़ज़ल : चश्मदीद है आसमान

आज एक सच्ची  मुहब्बत का अफसाना बयान कर रहा हूँ . सुनिए .. लिखता हूँ,

मैं तो हूँ तेरी दुनिया, तू ही है मेरा जहाँ,
रास्ते हैं सारे गवाह, चश्मदीद है आसमान.

*                           *                               *

मैं जो पुकारूं तुझको, और बड़े हों फासले,
आँख भरके याद करना, सज उठेंगे काफिले.

इंतज़ार के दिए जब हवाओं में डगमगायेंगे,
हम आंसुओं से रात भर नैनों के दीप जलायेंगे.

रो रो थकेगा सावन, भादो होगा परेशान,
हर हाल में जारी रहेगा मुहब्बत का कारवां.

*                             *                              *

होगा एक दिन यूँ, तुम हमें भूल जाओगे,
रास्ते होंगे हज़ारों,  दूर कहीं निकल जाओगे.

तनहाइयों में तुम, अंधेरों में मचल जाओगे,
दिल कहेगा लौट जाओ, पर लौट न पाओगे.

याद करना उस पल, हम पहुँच जायेंगे वहाँ,
खून से सींचेंगे फूल, तेरे आंसू गिरेंगे जहाँ.

*                             *                               *

गर उसी राह पर कोई और दूजा मिल जाए,
हम नज़रों से हों दूर और वफ़ा हिल जाए.

लगे महफ़िल कहीं और टकराएं शीशे जाम के,
साथ न हों मेरा तो चलना किसीका हाथ थाम के.

गैरों से न दर्द लेना, भूल जाना हम मिले कहाँ,
भूल जाना सर्द मौसम और अपनी दास्तान.

*                                *                             *

हम तो चलेंगे अकेले, आँखों में ले तेरा जहाँ,
तू बेशक भुलादे, हम रखेंगे पाक मुहब्बत जवाँ.
रास्ते रहेंगे गवाह, चश्मदीद रहेगा आसमान.
चश्मदीद रहेगा ये आसमान.


पढने का तहे दिल से शुक्रिया.

ग़ज़ल : खुद के बारे में

 खुद के बारे में लिखना कभी आसान नहीं होता. पर कभी कभार लिखना ज़रूरी होता है. ये सोचने का मौका मिलता है कि हम कैसे हैं. ये विश्लेषण ज़रूरी है. कुछ अपने बारे में लिख रहा हूँ.----


अफसाना बयाँ करते हैं तो कभी रात नहीं होती,
महफ़िल में मिलते हैं सबसे पर मुलाक़ात नहीं होती.

मेरी शक्सियत है ऐसी ही बुरा न मानें, गलती होगी,
यारों से भी मेरी आज कल खुलके बात नहीं होती.

मुझे जानना है मुसीबत, नसीहत लें तो बचियेगा,
मेरी दास्तान है दिलचस्प पर जलसे में आवाज़ नहीं होती.

हम वो हैं जिसकी मौत ही बेवफा निकली हमेशा ही,
हमसे तो अब ज़िन्दगी भी कभी नाराज़ नहीं होती.

फ़िदा होना वो खूबी है जो अरसे से हमको सिखाई गई,
आदत है बुरी, पर खता करने से फितरत बाज़ नहीं होती.

'अतुल' 

ग़ज़ल : मेरे हसने पे न जाना

तकलीफ कोई न कोई, हर किसी को होती ही है. कोई झट से आंसू बहा देता है तो कोई उस लम्हे का इंतज़ार करता है जब अश्क सारे दायरे तोड़ कर नज़रों को भिगो देते हैं. कोई हस कर छिपाता है तो कोई ख़ामोशी कि जुबान से धीरे से कुछ कह देता है. कितनी अजीब बात है कि दर्द की अभिव्यक्ति कितनी भिन्न होती है.

मेरे हसने पे न जाना मैंने रोना नहीं सीखा है,
मेरी आँखें नहीं नम तो क्या, दामन मेरा भीगा है.

कहते हैं के आंसू दिल का भार कम करते हैं, पर हर दिन हर रात रो कर भी ऐसा लगता है कि दरिया भी बहा दो तो नज़रों को कम पड़ेगा. और बात तो ये भी है कि कितनी ही मर्तबा मेरे रोने पे आंसुओं ने मुझे धोखा दिया. क्या बिना आंसुओं के गम नहीं छलकता?

ये समझ नहीं आया कि आंसूं नेक हैं कि नहीं,
इन्हें देख कर ही लोगों का दिल आज पसीजा है.

सबूत ढूंढते हैं कि निगाहों में है जलन कि नहीं,
तहकिकात न करें, अश्कों का रास्ता बड़ा सीधा है.


दिल से निकलकर, आँखों से गिरती हैं जो बूँदें,
उनका होता किसी दिल पर बड़ा नतीजा है.


पर उनका क्या जो हसते होठों में छुपते हैं,
अनसुनी सिसकियों ने बस तनहाइयों में चीखा है.

सच तो हमेशा की ही तरह धुंधला है, पर हर रोने वाले की हकीकत यही होती है. मैं मानता हूँ कि तकलीफ में रो पाना कितनी खुशकिस्मतों की खूबी होती है. और कितना तकलीफ देता है गम के कडवे एहसास को बिना सिसकी भरे मुस्कुरा के दिल में समेट लेना. कितना ज़रूरी है हर चाहने वाले के लिए ये जान पाना कि दर्द जो न जुबां पर आ पता है और न ही आँखों में वो दिल में कैसा कोहराम मचाता है. ये खुद पर किया गुनाह बड़ा ही गलत है. इसका इलाज अगली ग़ज़ल में ढूढने की कोशिश करूंगा.

पढने का शुक्रिया.

आपका अतुल.

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