नज़्म : गुडिया की कहानी

एक छोटी सी गुडिया की कहानी कहो तो सुनाऊं,
पलकों में रहती थी रह रह के मुझे सताती थी |

बाँहों में गुलदस्ते लपेटे खुशबु सी लगती कभी,
कभी कानों में मेरे फिज़ा का दर्द गुनगुनाती थी |

क्या राज़ है, किसको पता दबी सी मुस्कान के पीछे,
या वही बात है जो वो तसव्वुर में आके बताती थी|

मचल उठती थी प्याले में बंधे नशे की तरह,
कभी मोती के कीमती टुकड़े अश्कों से बहती थी|

उसका आशियाँ था मेरे दिल का हर कोना,
मेरे आगोश में, मेरी मुहब्बत में हर शाम नहाती थी|

मेरी पलकों की चादर ओढ़ कर सोती थी बेहोश सी,
हर रात हकीकत से लड़कर मेरे आगोश में समाती थी|

'अतुल'

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