धनुषकोडी की यात्रा

शायरी ब्लॉग पर एक यात्रा वृत्तान्त थोडा अजीब लगता है पर मैं इतनी छुट अवश्य लूँगा |  कुछ समय की लीवर की तकलीफ के ठीक होते ही मां ने जिद्द पकड़ ली कि अब जो हों जाये शिवजी के परम धाम रामेश्वरम तो जाना ही चाहिए और पिताजी ने ज़यादा विरोध भी नहीं किया | तो फिर क्या था, हम सब निकल पड़े | रामेश्वरम बड़ा ही भव्य था पर उसके बारे में लिखना पसंद नहीं करूंगा | दो कारणों से - पहला ये कि रामेश्वरम पर तो बहुत लेख यूँ ही मिल जायेंगे और दूजा ये कि मैंने रामेश्वरम में ऐसा कुछ ख़ास नहीं पाया जिसपर अपने विचार व्यक्त कर सकूं | तो फिर आपका ये प्रश्न कि मैं आखिर क्या लिखूंगा, बड़ा ही स्वाभाविक है और उतना ही जितना मेरा धनुषकोडी के बारे में लिखना |

अनेकानेक मंदिरों में माथा टेकने के बाद, मठों में शांति अनुभव करने के बाद, तैरते पत्थर (जो दरअसल कोरल जीव थे ) देखने के बाद भी  मैं इस बात से सहमत नहीं था कि कभी राम ने इतिहास में ऐसा कोई पुल बांधा भी था | विज्ञानं का अनुयायी होने के कुछ अनचाहे परिणामों में से एक श्रद्धा का कम होना भी है | हालाकि मैं ऐसा नहीं मानता कि मेरी ईश्वर पर से श्रद्धा  कम होती है पर हाँ राम पुल पर से तो भरोसा उठ ही गया | शायद इसी लिए मैं उन सब पर लिखना नहीं चाहता | पर रामेश्वरम में मंदिरों और आस्था वाले समता स्थलों से हट कर भी कुछ था जो मेरे लिए रामेश्वरम धाम में शिव दर्शन जैसा ही महत्व रखता है | और वह है धनुषकोडी का अद्भुत अनुभव |


रामेश्वरम के प्रमुख धराखंड से एक पतली सी रेतीली पट्टी से जुड़ा हुआ है एक अद्भुत रेतीला छोर, एक छोटा सा गाँव जिसे धनुषकोडी के नाम से जाना जाता है | पर ये गाँव सिर्फ एक गाँव नहीं है ये प्रकृति की अद्भुत शिल्प कला का नायाब प्रदर्शन है | दोनों तरफ से ही समुद्र से घिरा है ये गाँव और जहाँ एक तरफ समुद्र तलब जैसा शांत है वहीँ दूसरी ओर से समुद्र के विकराल स्वरुप का परिचायक | पूर्व दिशा से पानी में हलकी हलकी मौजें उठ रहीं थी और उसकी ज़िम्मेदारी भी हवा कि गति ले रही थी | कुछ मीटर की दूरी पर पश्चिन किनारे पर लहरें इस फासले को खत्म करने पर उतारू हों रहीं थीं | साथ चलते आदमी ने मेरे अध्ययन करते स्वाभाव को पहचानते हुए तमिल में कुछ कहा मैं लगभग यही समझ पाया कि वो लहरों के विषय में कुछ बताने की चेष्टा कर रहा था | मैंने एक बड़ी मुस्कान के साथ कहा कि मुझे तमिल नहीं आती ' तमिल इल्लै '| इस पर वो हसने लगा और अपने साथ के एक पुरुष से कुछ कहा और फिर अपनी अंग्रेजी पर पूरा जोर लगाया और कुछ टूटी फूटी अंग्रेजी में भाव प्रकट किया | उस पुरुष के अनुसार आधे वर्ष समुद्र एक ओर शांत रहता है और आधे वर्ष दूजी ओर  | मैं इतना ही समझ पाया या फिर यूँ कहें कि वह इतना ही समझा पाया |

धनुष कोडी का रास्ता इतना रेतीला और कीचड़ से भरा हुआ था कि ड्राईवर के हुनर की दाद देनी पड़ेगी | उसने मक्खन कि तरह गाड़ी को घुमाया और ज्यादा तकलीफ दिए बिना ही हमें गाँव ला पहुँचाया | कुछ ही देर में खंडहरों से भरा गाँव दिखने लगा | चारों ओर कंटीले पौधे उगे हुए थे रेत में कहीं छुपती और कभी दिखती एक रेल पटरी के अवशेष थे | वहीँ एक ढांचा बना हुआ था जो एक रेल प्लेटफोर्म की छवि बना रहा था | कुछ ऊँचे पक्के मकानों के खँडहर भी थे जो अंग्रेजों के ज़माने के डिजाइन लग रहे थे | कुछ इतने मज़बूत कि अभी भी शान से खड़े थे हालाकि काफी हद तक उन पर पेड़ पूछे उग गए थे | ऐसा प्रतीत हों रहा था कि धनुषकोडी खुद में किसी विनाश की कहानी को अपने अन्दर दबाए हुए था |


 एक भद्र पुरुष ने पिताजी के साथ बात छेडदी | पता चला कि यहाँ एक अच्छा खासा गाँव हुआ करता था और यहाँ रेल स्टेशन , अस्पताल , पोस्ट ऑफिस, जेट्टी (छोटा पोत गृह ) , फिशेरी ऑफिस सब हुआ करता था | १९६१ तक यहाँ से श्री लंका के लिए नावसेवा हुआ करती थी क्यूँकि यह श्रीलंका के सबसे करीब छोर था | तब यह काफी सुन्दर, विकसित और संपन्न पर्यटक स्थल था | १९६१ के तूफ़ान ने ऊंची लहरों से इस गाँव को निगल लिया, अब यह खंडहरों से भरपूर एक मायूसी का प्रचारक मात्रा रह गया है | समय समय पर समुद्र धनुषकोडी को बाकी खंड से अलग करने के प्रयत्न करता रहता है | मनुष्य और प्रकृति एक दुसरे से लड़ते दिखे | प्रकृति परम शक्तिशाली अवश्य है पर मनुष्य के मनोबल और सहनशक्ति की भी कोई सीमा नहीं होती | वहां कुछ ही पक्के मकान बचे दिखे और उनमें से एक है चर्च और दूसरी है पाठशाला | लोग कच्चे मकानों में रहते दिखे | पास में ही एक बच्चा (बच्चा कहना गलत होगा, वो काफी बड़ा था ) लंगोट में ताड़ के पेड़ की छाँव में निद्राधीन दिखा | अन्य वातावरण में यह अश्लील कहा जा सकता था पर भीषण गर्मी देखते हुए न केवल मुझे वो सही जान पड़ा बल्कि लगा कि या तो मैं भी सामाजिक व्यवधानों को भूल जाऊं या फिर सागरमग्न हों जाऊं | पर मैंने आगे बढ़ना बेहतर समझा |


चौंकाने वाली बात तो ये थी कि धनुषकोडी जैसे धार्मिक तौर पर महत्त्वपूर्ण स्थान पर मैंने एक मंदिर नहीं पाया | मान्यता है कि श्री राम ने यहीं से लंका के लिए अपने धनुष से सेतु बनाने के लिए पहली लकीर खींची थी और फिर सीता को मुक्त करने के पश्चात् जब वो लौटे तो विभीषण के आग्रह पर उन्होंने अपने धनुष के प्रहार से सेतु को नष्ट कर दिया | इसी कारण इसका नाम पड़ा "धनुषकोडी" अर्थात धनुष का छोर (अंत)| मान्यता यह है कि कशी यात्रा बिना रामेश्वरम दर्शन और धनुषकोडी स्नान के साम्पन नहीं समझे जाते |

आखिर हम वहां पहुंचे जहाँ बंगाल कि खाड़ी और हिंद महासागर का सुन्दर आलिंगन हों रहा था | यह हिस्सा एक लम्बा रेतीला छोर था | सुन्दरता बस देखते ही बन रही थी | थोड़ी देर के लिए मैं भूल गया था कि तपता सूरज हमारे इस विचरण से खुश नहीं था | वहीँ एक औरत मोतियों की मालाएं और झुमके बेचती दिखी और मां का ध्यान आभूषणों की सुन्दरता की ओर चला गया | पर सच पूंछे तो उन मोतियों की बात ही निराली थी | बड़े बड़े प्रकृति के समुद्रीय नज़राने कड़ी धूप में हीरों से भी भव्य प्रतीत हों रहे थे | वो मोती बाज़ार के मोतियों से अलग थे | साथ ही में कुछ और रत्ना भी थे | औरत ने मां को मोतियों से मोहने के बाद दाम बताया | और बिना ज्यादा तोल मोल लिए मां ने उन्हें खरीद लिया | मैंने कुछ और मोती बिने पर अपने कैमरे में | सुन्दर तस्वीरें खींच कर हमने सूर्य देवता के आगे आत्मा समर्पण कर दिया और जा कर गाडी में बैठ गए | लौटे हुए मैंने आँख भर कर सब कुछ जितना हों सके सब बटोरना शुरू कर दिया| देखते देखते छोर गायब होने लगा | खँडहर रेत के पीछे छुपने लगे और धीरे धीरे सूरज भी अपनी भड़ास निकल कर शांत हों गया | बाकी सब गाड़ी में सो चुके थे और मैंने भी धनुषकोडी के आखरी नज़ारे के साथ मैंने भी ऑंखें बंद करलीं |
(लेख के साथ की तसवीरें छवियाँ मेरी नहीं हैं, इनका श्रेय उनको खींचने वाले सज्जनों को जाता है | ) 
5 Responses
  1. Atul Mishra Says:

    बोहुत ही सुन्दर विवरण है....


  2. Bahut hi sundar vivran hai but tufan 22 Dec 1964 me raat 11:55 PM pe aya tha.


  3. Thanks Abhishek ji for the correction. Duly noted.



  4. Meet..... Says:

    धनुषकोडी के प्राकृतिक सौनदर्य के जीवंत वर्णन को पढ़कर मजा आ गया । अब उस उजड़े स्टेशन के पास एक शिव मंदिर बन गया है और आसपास कई दुकाने खुल गई है । मै अभी 15 दिन पहले गया था । वाकई दिव्य और अदभुत ।।


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