ग़ज़ल : देखा है

ग़ज़ल लिखते समय कभी मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि मेरी रचना कितने नियमों पर खरी उतरेगी, गर ख्याल रहा तो महज़ इसी बात का की जज़्बात बखूबी उभर आये| हमेशा यही कहूँगा कि थोडा बहुत प्रयोग हमेशा करता हूँ नई नई शिलियों के साथ| लिखने की कोशिश इस लिय्स करता हूँ क्यूंकि इन रचनाओं के माध्यम से बंधन से मुक्त हों सकूं| रदीफ़ और काफिये पर ज्यादा ध्यान न दें, वरना ग़ज़ल नाराज़ हों जाएगी.... मजाक कर रहा हूँ| पढने का शुक्रिया ......

मैंने ज़िन्दगी का हर शक्स देखा है,
आईने में मैंने हर अक्स देखा है|

सुना है इश्क की चिंगारी बुझती नहीं,
नज़रों से  शोलों को बुझते देखा है|

सपने बह गए इशारों में ही क्यूंकि,
मैंने भीगी आँखों से सपना देखा है|

मैंने देखा उन्हें कई वादे करते हुए,
मैंने उन्हें रिश्तों को तोड़ते देखा है|

लहरों से मैंने चट्टान को कटते देखा,
मैंने सैलाब सीने में छुपते देखा है|

आंसुओं के ठिकानों में उम्मीदें देखी,
आंसुओं के साथ उनको बहते देखा है|

मेरी तस्वीर आँखों में है इतनी बुरी,
ज़ख्मों पे मैंने खुदा को हसते देखा है|

राहों पे मैंने यारों को बढ़ते देखा ,
मायूसी को मेरे लिए रुकते देखा है|

सोचता था आसमां है हौसला मेरा,
मैंने तो आसमाँ को भी झुकते देखा है|

'अतुल'
1 Response
  1. बेहतरीन भाव हैं

    रदीफ काफिया के बारे में आप बेहतर जानते हैं :)


Blog Flux

Poetry blogs