ग़ज़ल : ज़िन्दगी आज फिर से

ज़िन्दगी आज फिर से बदलने लगी,
रात पत्तों के पीछे है ढलने लगी|

दुनिया हम से लडती थी, हम वक़्त से,
सांस अब तो फतह में सम्हलने लगी|

हम हैं शीशे क्यूँ पत्थर से टकरा गए,
पत्थर में नमी क्यूँ मचलने लगी |

कोई दर्द ले कर चले जा रहे थे,
 नई बात फिर से निकलने लगी|

बुस्दिली के थे कायल जो अब तलक,
उनमे लड़ने की चाहत उछलने लगी|

 - 'अतुल'
1 Response
  1. abhijeet Says:

    yaar abhi kuchh baat aage badhhi hai, lagta hai. achhi hai.


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