ज़िन्दगी आज फिर से बदलने लगी,
रात पत्तों के पीछे है ढलने लगी|
दुनिया हम से लडती थी, हम वक़्त से,
सांस अब तो फतह में सम्हलने लगी|
हम हैं शीशे क्यूँ पत्थर से टकरा गए,
पत्थर में नमी क्यूँ मचलने लगी |
कोई दर्द ले कर चले जा रहे थे,
नई बात फिर से निकलने लगी|
बुस्दिली के थे कायल जो अब तलक,
उनमे लड़ने की चाहत उछलने लगी|
- 'अतुल'
yaar abhi kuchh baat aage badhhi hai, lagta hai. achhi hai.