एक छोटी सी गुडिया की कहानी कहो तो सुनाऊं,
पलकों में रहती थी रह रह के मुझे सताती थी |
बाँहों में गुलदस्ते लपेटे खुशबु सी लगती कभी,
कभी कानों में मेरे फिज़ा का दर्द गुनगुनाती थी |
क्या राज़ है, किसको पता दबी सी मुस्कान के पीछे,
या वही बात है जो वो तसव्वुर में आके बताती थी|
मचल उठती थी प्याले में बंधे नशे की तरह,
कभी मोती के कीमती टुकड़े अश्कों से बहती थी|
उसका आशियाँ था मेरे दिल का हर कोना,
मेरे आगोश में, मेरी मुहब्बत में हर शाम नहाती थी|
मेरी पलकों की चादर ओढ़ कर सोती थी बेहोश सी,
हर रात हकीकत से लड़कर मेरे आगोश में समाती थी|
'अतुल'