अंदाज़-ए-मुहब्बत

बड़ी गुमनाम गलियां हैं, हमें सब गैर बताते हैं |
कोई है रूबरू हमसे शक्ल पर बैर दिखाते हैं |

थोड़े इशारे कर के छुप गए हैं वो जुगनू जिन्हें,
हम परवाने जानकार जाने कब से जलाते हैं |

इस ज़िन्दगी का एक पल तो खुल के हम जीलें,
कि इस इक पल भी वोह हमसे खुदको छुपाते हैं |

अभी भी डर गए तो कब उठेंगे अरमान अनकहे,
उम्रभर के वादों को चलो इसी पल निभाते हैं |

दूरियां हैं ऐसी हम उन्हें कोस भी तो नहीं सकते,
इन्हीं फासलों से वो हमसे मुहब्बत जताते हैं | 

' अतुल '



1 Response
  1. Atul Mishra Says:

    Another good read. Loved the last 4 lines. Good luck for the life ahead.


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