इस शहर का तो लगता यही दस्तूर है,
यहाँ मुहब्बत को इबादत नहीं कहते.
परछाई बनकर देखो कि जीना क्या है,
मेरे होने को यहाँ हकीकत नहीं कहते.
यहाँ ज़माने से लड़ना बगावत है,
मुहब्बत में मिटने को शहादत नहीं कहते.
महबूब यहाँ बिछने को कालीन होते हैं,
खूब है यहाँ महबूब को हसरत नहीं कहते.
किसी की चोट पर जान निकलती है,
इस मर्ज़ को यहाँ मुहब्बत नहीं कहते.
मेरे सीने के घाव उनके तोहफे ही हैं,
उनके किसी वार को हम नफरत नहीं कहते.
- "अतुल"
यहाँ मुहब्बत को इबादत नहीं कहते.
परछाई बनकर देखो कि जीना क्या है,
मेरे होने को यहाँ हकीकत नहीं कहते.
यहाँ ज़माने से लड़ना बगावत है,
मुहब्बत में मिटने को शहादत नहीं कहते.
महबूब यहाँ बिछने को कालीन होते हैं,
खूब है यहाँ महबूब को हसरत नहीं कहते.
किसी की चोट पर जान निकलती है,
इस मर्ज़ को यहाँ मुहब्बत नहीं कहते.
मेरे सीने के घाव उनके तोहफे ही हैं,
उनके किसी वार को हम नफरत नहीं कहते.
- "अतुल"
nayab .. bahut sunder
bav vibhore kar diya
kya baat hai.
bahut khoob likha apne.