ग़ज़ल : वो लोग

मोहताज हैं जो किस्मत के वो खाक सज़ा देते हैं,
महरूम थे जो उजालों से वोह चिराग बुझा देते हैं |

भीड़ में घुसते हैं जो मुजरिम ढूँढने के बहाने से,
पूंछो तो उनसे वोह किसको पास पनाह देते हैं |

वोह डरते थे इल्जामों से इस कदर कि छुप गए,
वोह ही तो खुद अफ्वाओं को हर बार हवा देते हैं |

खामोश थे हर मुकद्दमे में नजाने क्यूँ अब तलक,
क्यूँ आज वो ही अकेले इन्साफ को सदा देते हैं |

और हसने से हम थे डरते, नज़रों से बचते थे,
आज हम भी खुशियों को दिल से वफ़ा देते हैं |


  ' अतुल '
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