मंथन



हम कितने खुदगर्ज़ होते हैं! इतने की हम ज़िन्दगी को बस एक ही नज़रिए से ज़िन्दगी भर देखते हैं. हमारी पूरी ज़िन्दगी इसी सोच में निकल जाती है की हम क्या करें, हमें क्या फायदा होगा और क्या नुकसान, हम किसे चाहें, हमारे रिश्ते कैसे हैं और तो और हम दूसरों की नज़रों में क्या हैं. पर इन सभी नीजी सवालों में एक सवाल कभी नहीं उठता और वो ये की हम कौन हैं? और जो हम कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं? हम कभी कोई और बनकर अपनी ज़िन्दगी, अपनी हकीकत, अपने कल और आज के बारे में सोचें तो हँसी छूट जायेगी. सच से पीछा छुडाते छुडाते हम एक ग़लतफ़हमी के शिकार हो गए हैं. हम उसे सच मानते हैं जो समाज ने अपने स्वार्थ के लिए हमें दिखाया है. पर समाज स्वार्थी कैसे हो सकता है? हमारी पहचान भी हमें इसी समाज ने ही दी है और हमारे लिए जैसा समाज करता है वैसा करना ज़रूरी हो जाता है. पर क्या बड़ा है समाज या फिर ये ज़िन्दगी खुद. हद तो ये है की यहाँ हम खुदगर्ज़ नहीं हो पाते. ये तो गुलामी है. ज़िन्दगी समाज की गुलाम है. और हम इस ज़िन्दगी के. हम आजाद नहीं हो सकते; दरअसल होना भी नहीं चाहते. डरते हैं हकीकत से और उसके डरावने चहरे से. और इसीलिए सारी ज़िन्दगी अपने आप से झूट बोलते हुए हिकल जाती है. मैं गलत हूँ हम खुदगर्ज़ नहीं कायर हैं, एक अस्तित्वहीन दर के कायल. ख़ैर ज़िन्दगी मुबारक हो! मुझे भी!

-- ' अतुल '


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