बचपन भटक जो जाते हैं


नन्हे हाथों में कांच के बर्तन चटक जो जाते हैं ,

खामोशी की राह से बचपन भटक जो जाते हैं .


घुल जाते मिसरी जैसे पानी में ,

गिर पड़ जाते हैं नादानी में ,

कंचों के खेल खेल जाते ,

कुछ कुछ दूर और ठेल जाते .


वोह खेल स्कूल से दूर किसी सड़क को जाते हैं ,

खामोशी की राह से बचपन भटक जो जाते हैं .


कुछ मुस्कान अभी थी बाकी ,

सपने सभी थे अभी तक साथी ,

किसी और दुनिया में चलते हर पग ,

बचपन के कांच से देखा था जग ,


उस दुनिया के उमंग महल तोह पलक झपक खो जाते हैं ,

खामोशी की राह से बचपन भटक जो जाते हैं .


- ' अतुल '

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