बहुत समय से शायरी नहीं कर पा रहा था | इस बार एक कव्वाली पेश कर रहा हूँ | किसी शायर की बेपनाह मुहब्बत का पैग़ाम है जो अभी तक दिल के किसी कोने मैं छुपा है | एक परिंदे की आज़ाद होने की जिरह को शब्दों में पिरो के इस तरह पेश करने का इरादा है कि मानो मुहब्बत दिल के पिंजरे को तोड़ कर आज़ाद उड़ना चाहती हो | बहुत वक़्त बाद लिख रहा हूँ| वैसे तो शायरी को जंग नहीं लगती पर खास के कोई बुनियादी गलती हो तो मुआफ़ कीजिएगा| लिखा है ...
मैंने सीने में बहुत प्यार छुपा रक्खा है,
कोई आशिक कोई दिलदार छुपा रक्खा है |
मेरी साँसों में अभी खुशबु तेरी आती है ,
जाते हो जो तो जान मेरी जाती है |
ख़ुशी मिलती है आजकल ये अश्क पीने में,
हर बार जो सैलाब उठते सीने में |
है मुझे गम ये इक इज़हार छुपा रक्खा है,
कोई आशिक कोई दिलदार छुपा रक्खा है|
मैं नज़रें उठाई तो तुने परदे किये मुझसे,
मेरा रब है तुही, मैंने सजदे किये तुझसे |
मेरी नफरत में भी मुहब्बत अभी बाकी है,
ये वो प्यार है जो जाते नहीं जाती है |
मैंने दुनिया से तुझे हर बार छुपा रक्खा है,
कोई आशिक कोई दिलदार छुपा रक्खा है |
तू न माने, न मानने के कई बहाने हैं,
बेवफाई और बेरुखी न तुझे आने हैं|
जो भी कहले तेरी आँखें तो बयां कर देंगी,
हवाएँ ये पतझड़ भी जवान कर देंगी |
तू है मेरी, तूने ये इख्तियार छुपा रक्खा है,
कोई आशिक कोई दिलदार छुपा रक्खा है |
'अतुल'