नज़्म : कान सुनते नहीं

टूटे हैं कबसे हम, क्यूँ बिखरते नहीं,
चीख है तो दीवारों में, कान सुनते नहीं |

नस में है नशा घुल रहा कि ज़हर,
काम आती न दुआ बुझ रही है नज़र |

अश्क बहते हैं, आंसू निकलते नहीं,
चीख है तो दीवारों में, कान सुनते नहीं |

मैं अकेले चला हूँ, ये है मेरा रास्ता,
पीछे आना नहीं, तुमको है वास्ता |

राह दिखती मगर कांटे दिखते नहीं,
चीख है तो दीवारों में, कान सुनते नहीं |

वो खफा हैं, जता के ख़ुशी तो मिली,
कुछ न खला, ये बेबसी तो खली |

मुस्कराहट है लबों पे, घाव छिपते नहीं,
चीख है तो दीवारों में, कान सुनते नहीं | 

'अतुल ' 
0 Responses

Blog Flux

Poetry blogs