शाम ढली अब क्या जतन हर बार करे,
दिल कमज़ोर है, कब तक इंतज़ार करे |
धागे रिश्तों के कमज़ोर हैं ये जानते हैं,
जो ये घाव सिये तो अंग भी बेकार करे |
उठा के सपनों का बोझ पलकों पे चले,
गिरे तो खुदको, रहे तो चलना दुश्वार करे |
सोचा बहुत कि मंजिल के आगे बढ़ जाएँ,
ये दिल है नादाँ, हर मंजिल पे प्यार करे |
नदी चली आती है आगे थोड़ी बावफा है,
कटे घुले भले पर आखिर क्या कगार करे |
छोड़ भला क्या और बुरा क्या होना है,
जंग है दिल की, ये जीते को भी हार करे |
'अतुल'
कल 28/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
उठा के सपनों का बोझ पलकों पे चले,
गिरे तो खुदको, रहे तो चलना दुश्वार करे |
खूबसूरत गज़ल
वाह ...बहुत बढि़या ।
अच्छी कहन...
शुभकामनाएँ...
बेहतरीन गजल ..शुभ कामनाएं !!!