ग़ज़ल: साये


तमन्ना की महफ़िल में मुझे खजाने मिलने लगे,
थोड़ी सी छाँव में भी यहाँ साये सभी पलने लगे|

दो वक़्त का मुद्दा उठाया था बस नाम के लिए,
भरी बारिश में कोरे कागज़ सबके जलने लगे|

छोटी सी नसीहत से डराया सबने बेतहाशा हमें,
सुबह की धुप में ही हम मोम से पिघलने लगे|

मेरी बुराइयों पर था कोसा मुझे हर इक बात पर,
मेरे ठन्डे होते ही देखो  हाथ सब मलने लगे|

अभी है नाज़ुक नब्ज़ मेरी थामना तुम गौर से,
ये क्या तुम तो  बस कफन छोड़कर चलने लगे|

- 'अतुल'
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