ग़ज़ल

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जो अरमान बूढे पैदा होते हैं, जवान नहीं होते,
आजकल मेरे रोने पर पड़ोसी मेरे हैरान नहीं होते।

तार्जुब होता है की अंधेरे ने हमें मारा है डराकर,
यहाँ तो अंधे भी दिए जलाते हैं परेशान नहीं होते।

छटपटाते बदन के सीने में कोई खंजर देदे,
नेक लोग यहाँ , एक से तमाम नहीं होते।

कब्रिस्तान में मुझसे कई बस यूँ ही लेते हुए थे,
लाशों पे उनके मौत के कोई निशान नहीं होते।

ज़िन्दगी की गुलामी एक अरसे से है की मैंने, फिर क्यूँ,
मेरे सपने मेरी हकीकत के गुलाम नहीं होते।

ये कोई ज़िन्दगी नहीं न मौत का ही ज़िक्र है,
ये तो मुहब्बत है, इसके सिलसिले कभी आसान नहीं होते।
- ' अतुल '




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