ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुमने ये क्या कह दिया

मेरी ज़िन्दगी अभी थी बाकी और कुछ एहसास अनछुए से थे,
आह भी नहीं निकली बदन से तुमने धीरे से ये वार कैसा कर दिया.

सो गया था नींद गहरी बड़े अरसे से ये आँखें मेरी जागी ही थीं
अरे! प्यार की आड़ में किस ज़ख्म पर तुमने हाथ अपना रख दिया.

और धीरे से रोने को न कहना ये बड़ी ही ज्यादती हो जायेगी,
मैं हूँ अकेला, गूंजता हूँ, तू कौन है जो मेरे रोने से डर के चल दिया.

इतनी क़यामत है ज़िन्दगी की किसी का डर नहीं बाकी मुझमे,
मैं कच्चे खाक का बुत था, तुने प्यार से ख़ाक मुझको कर दिया.

ऐसी भी बेशर्मी के न कायल बनो, अजी खुदा सभी को देखता है,
खूब खेला मेरे आंसुओं से और जाने से पहले रुमाल पीछे रख दिया.
-- ' अतुल '



ग़ज़ल


क्यों

इस शहर में डूबते जज्बात पूंछते हैं,
हर आदमी यहाँ इंसान क्यों नहीं होता.

मेरे पूछने से पहले ही ये दास्तान सुनाई गई,
इस मुलाकात का कोई अंजाम क्यों नहीं होता.

इतनी दौलत है यहाँ मंदिर मस्जिद में ,
फिर यहाँ नेकी करना आसान क्यों नहीं होता.

हवा वही है, मौसम वही है सदियों से यहाँ,
फिर सुकून से यहाँ कोई काम क्यों नहीं होता.

नेकी फौलाद का ईमान चाहती है, इसलाम नहीं,
अजी, हर बशर यहाँ मुसलमान क्यों नहीं होता.

-- ' अतुल '
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