साँस है पर साज़ नहीं
इतनी सी ही तो बात है, साँस है पर साज़ नहीं,
एक गीत जुबां पर आता है, याद है पर याद नहीं.
बीते लोगों को भूल भी जाएँ, पर नज़रें राह तकती हैं,
कानों में मोहल्ले का शोर है, उनके क़दमों की आवाज़ नहीं.
जो बरकत में खेलते हैं लुक्का छुप्पी के खेलों को,
उनकी आँखों में राह कई हैं, पर राहों पर आँख नहीं.
हवा भी गिरकर सागर से कभी न कभी जा मिलती है,
पर खुदसे छुपते तुमसे हमको अपने मिलने की आस नहीं.
वक़्त के आगे सुना झुककर सब गम फ़ीके पड़ जाते हैं,
फिर क्यों तकिया सूखा रह जाए ऐसी कोई रात नहीं.
--- ' अतुल '
आपकी गज़लों का तेवर थोडा हटकर लगा...
कई शेर विशेषतः अच्छे लगे...
शुभकामनाएं....