ग़ज़ल : बाजारों की हलचल


 बाजारों की हलचल 

ये बाजारों की हलचल है.

यहाँ पुराने हाथों से नए हुस्न की नुमाइश होती है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई जिस्म नया बिकता होगा.

यहाँ सदियों के सूखे में गम ही बारिश बन कर गिरता है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई बंजर ईमान ही सिंकता होगा.

यहाँ  पुराने करतब कब से नए खिलाडी दिखाते हैं,
ये  बाजारों की हलचल है, कोई पर्दा फिर से खिचता होगा.

यहाँ वो जंगल के जानवर आदमखोर तो खुल्ले घूमा करते है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई इंसान पिंजडे में दिखता होगा.

यहाँ खनक और चमक पैगम्बर  बोलने का हक रखते है,
ये बाजारों की हलचल है, कोई सिक्का पुराना घिसता होगा.

अरे! तुम क्या समझे, ये बाजारों की हलचल है.

                                                            - ' अतुल '
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